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अफगानिस्तान-अभी कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं

कंवल सिब्बल
शनि, 04 सितम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

अफगानिस्तानअभी कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं

कंवल सिब्बल

तालिबान के दोहा कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई के अनुरोध पर उन्होंने दोहा में हमारे राजदूत से मुलाकात की। यह संपर्क एक भारतीय टीवी चैनल के साथ उनके साक्षात्कार से पूर्व हुआ था, जिसमें उन्होंने भारत के साथ-साथ ताजिकिस्तान, ईरान, पाकिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध  स्थापित करने और अफगानिस्तान के पुनर्वास में अमेरिका और नाटो की भागीदारी पर पुन आश्वासन मांगा। उन्होंने इस बात से इनकार किया कि तालिबान भारत को निशाना बनाने के लिए पाकिस्तान का सहयोग कर सकता है, और कहा कि  भारत और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक और भौगोलिक विवाद बहुत लंबे समय से चल रहा है। अत उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया है और दोनों देशों को “सीमा पर अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए” छोड़ दिया है। उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में जोर देकर कहा कि इस संघर्ष के लिए  अफगानिस्तान अपनी भूमि का उपयोग करने की अनुमति नहीं देगा, जिसमे लश्कर और जेईएम भी  स्पष्ट रूप से शामिल हैं।

उन्होंने  आश्वस्त किया कि हिंदुओं और सिखों के जीवन को कोई खतरा नहीं है। यह संदेश बताता है कि स्थिति चाहे जैसी भी हो, तालिबान में अल्पसंख्यक सुरक्षित रहेंगे। वे आश्वस्त थे कि सरकार “अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात” द्वारा ही बनायी जायेगी।  उन्होंने अफगानिस्तान में भारत द्वारा किए गए सभी विकास कार्यों को राष्ट्रीय संपदा के रूप में चित्रित किया और भारत को अधूरी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए आमंत्रित किया।

तालिबान द्वारा पाकिस्तान के समर्थन से अफगानिस्तान पर कब्जे से संबंधित भारत की आशंकाओं को दूर करने के लिए ये तरीका सही हैं।  स्टानिकजई ने विश्व के अन्य  प्रमुख नेताओं के संबंध में भी कहा और  उनके द्वारा तालिबान के समर्थन की पुष्टि अभी नहीं की। तालिबान पर्याप्त रूप से नियंत्रित और अनुशासित है या नहीं अथवा यह कितना गुटपरस्त है, यह सब आने वाले समय में ही  स्पष्ट हो पायेगा।

अमेरिका के अनुसार, हक्कानी समूह पाकिस्तान की बहुत करीबी और अल कायदा की एक प्रतिष्ठित अलग इकाई (वास्तविक अथवा राजनीतिक रूप से व्यवाहरिक पहचान) है। खलील हक्कानी के काबुल में सुरक्षा प्रमुख नियुक्त होने से स्टानिकजई के आश्वासनों की व्यावहारिकता पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। और यदि आईएस-के अभी सक्रिय है, जैसा कि हवाई अड्डे पर हुए  भयानक हमलों से पता चलता है, तो  इस स्थिति में स्टानिकजई के कथन  तथा उनके नीतिगत फैसलों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, भले ही उनकी ईमानदारी पर सवाल न उठाया जाए।

पाकिस्तान स्टानिकजई के  इस साक्षात्कार  और तालिबान की भारत तक पहुंच  को कैसे देखता है यह दिलचस्प विषय है।  यह स्पष्ट है पाकिस्तान इस बात से नाखुश होगा  उसने भारत को अफगानिस्तान से बाहर करने के लिए हर संभव प्रयास किये  परंतु स्टानिकजई भारत को अपने देश में पुन स्थापित होने  और  अपनी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आमंत्रित कर रहा है।  तात्पर्य यह है कि भारत  काबुल में  ना केवल अपने दूतावास  को  बल्कि  वाणिज्य दूतावास को भी खोल सकता है और इसके लिए तालिबान द्वारा आवश्यक सुरक्षा के प्रावधान  भी है।

यह न केवल पाकिस्तान बल्कि चीन को भी संतुलित रखने का संकेत है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी का मानना ​​है कि एक निकटवर्ती देश नहीं होने के कारण अफगानिस्तान में भारत की  इतनी बड़ी उपस्थिति उचित नहीं है। पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान में हमारे विभिन्न वाणिज्य दूतावासों पर प्रदर्शन सर्वविदित है। पाकिस्तान अब पर्दे के पीछे क्या करता है यह देखना दिलचस्प होगा। अभी किसी भी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना  जल्दबाजी होगी, लेकिन स्टानिकजई ने जो पत्थर फेंका है, वह कुछ लहरें तो अवश्य पैदा करेगा, भले ही उसने जो कहा वह तालिबान की छवि को थोड़ा कोमल बनाने, बाहरी चिंताओं को कम करने,  थोड़ा समय लेने  और क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति प्राप्त करने के प्रयास में  हो।

यह साक्षात्कार भारतीय राजदूत के साथ बैठक  करने के लिए राजनीतिक आधार बनाने हेतु एक नियोजित अभ्यास हो सकता था। अब जब अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा है तो किसी बैठक को अस्वीकृत करने का कोई तथ्य नहीं है। तालिबान का काबुल हवाई अड्डे पर कब्जा है  अत शेष भारतीय नागरिकों और  भारत में शरण लेने के इच्छुक अफगानी नागरिको को वहाँ से निकालने के लिए उनसे बात करने से  बचा नहीं जा सकता । यह विशुद्ध रूप से व्यावहारिक, और यथार्थ आवश्यकता है।इसका तालिबान शासन की औपचारिक स्वीकृति और काबुल में हमारे दूतावास के फिर से प्रारंभ करने जैसे बड़े मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है।

विदेश नीति के  संबंध में व्यवसायिक हलकों में कुछ आलोचना हो रही है कि भारत को रूस और चीन के निर्णय के विपरीत काबुल में अपना मिशन बंद नहीं करना चाहिए था, क्योंकि ऐसी स्थिति में हमारे नागरिकों और भारत में शरण लेने की इच्छा रखने वाले अफगानों के पास संपर्क का कोई स्थान नहीं है। . यह  विचार इस वास्तविकता से परे है कि भारतीय मिशन और नागरिक पूर्व में आतंकवादी हमलों का निशाना रहे हैं और इसमे अनेक लोग हताहत भी हुए हैं। हक्कानी के काबुल में सुरक्षा प्रभारी होने तथा आईएसआई के साथ उनके घनिष्ठ संबंध होने की स्थिति में, क्या सरकार को इस तनावपूर्ण और अनिश्चितता के वातावरण में दूतावास खोलने का जोखिम  उठाना चाहिए?

पाकिस्तान में अपने सुरक्षित ठिकाने के साथ तालिबान भारत का मित्र कभी नहीं रहा। यदि भारत जोखिम उठाकर अपने कुछ कर्मियों को वहाँ छोड़ भी देता  और किसी की जान चली जाती या उसे बंधक बना लिया जाता, तब सरकार की असावधानी और स्थिति पर नज़र न रखने, अपने लोगों  की  जान बेवजह खतरे में डालने, कुछ रियायतों के लिए बंधकों की रिहाई की मांग करने के जाल में फंसने जैसे अनेक तर्क दिए जाते।

भारत में कुछ समालोचको द्वारा गलत प्रचार किया गया कि  दोहा में स्टानिकजई और हमारे राजदूत के बीच हुई बैठक हमारे द्वारा तालिबान सरकार को औपचारिक राजनयिक मान्यता प्रदान करने का आधार है। स्टानिकजई फिलहाल तालिबान के दोहा कार्यालय के प्रमुख हैं। उनके पास कोई सरकारी पद नहीं  है। वास्तव में  इस लेख को लिखे जाने के समय तक काबुल में गनी सरकार को प्रतिस्थापित करने वाली नई सरकार की घोषणा नहीं की गई थी । यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यह एक समावेशी सरकार होगी, जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा अपेक्षित है, या एक विशुद्ध तालिबान सरकार होगी। नई सरकार में कौन कौन शामिल होगा और उसका घोषित एजेंडा क्या होगा,  आगे यह देखना महत्वपूर्ण होगा

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 2593, जिसमे रूस और चीन  शामिल नही हुए, उसमे कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओ का निर्धारण किया गया है, और  तालिबान उन्हें किस हद तक स्वीकार करता है, इससे  पश्चिमी देशों के रवैये का निर्धारण होगा। प्रस्ताव में मांग की गई है कि अफगान क्षेत्र का उपयोग किसी देश को धमकाने, आक्रमण करने अथवा आतंकवादियों को शरण देने, उन्हें प्रशिक्षित करने,  आतंकवादी कृत्यों की योजना बनाने, उनके वित्त पोषित के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसमे  यू एनएससी प्रस्ताव 1267 में नामित व्यक्तियों का विशेष उल्लेख किया गया है-जिसमें भारत के लिए लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेएम) शामिल हैं। इसमें अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को दोहराया गया है और तालिबान की प्रासंगिक प्रतिबद्धताओं को नोट किया गया है। यह सब भारत की  चिंताओं को दर्शाता है।

अमेरिका के अनुसार, इस संकल्प से स्पष्ट उम्मीद है कि तालिबान अफगान नागरिकों को देश छोड़ने का अधिकार देने की अपनी प्रतिबद्धता पर खरा उतरेगा। फ्रांस ने तालिबान की मदद से देश के भीतर आतंकवाद से लड़ने और सभी लोगों की जरूरतों को पूरा करने वाली सरकार की स्थापना के साथ साथ पिछले 20 वर्षों की उपलब्धियों के संरक्षण के महत्व पर बल दिया ।

यूके का मानना ​​​​है कि परिषद ने प्रस्ताव के माध्यम से तालिबान के प्रति अपनी अपेक्षाओं को स्पष्ट कर दिया है, जिसके अनुसार अफगानिस्तान फिर से आतंकवादियों का आश्रय स्थल नहीं बनेगा  और  साथ ही मानवाधिकार क्षेत्र की सुरक्षा भी अनिवार्य है। आयरलैंड ने किसी भी बातचीत के समझौते में महिलाओं की आवाज़ को शामिल करने के महत्व को रेखांकित किया है, और  कहा कि तालिबान को उसके कार्यों से आंका जाएगा, उसकी बातों से  नही।

रूस चीन की भाँति अफगानिस्तान की आर्थिक संपत्तियों को फ्रीज नहीं करना चाहता। इसके अतिरिक्त उन्होंने  इस बात पर भी बल दिया कि तालिबान के साथ काम करना और स्थिरता बनाए रखने में मदद करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करना महत्वपूर्ण होगा। मानवाधिकार और लैंगिक मुद्दों के  अतिरिक्त, यूरोपीय संघ प्रवासियो के अफगानिस्तान से यूरोप में प्रवाह के संबंध में भी अत्यधिक चिंतित है। यह स्थिति काबुल में नई सरकार के प्रति यूरोपीय संघ के रवैये को काफी  हद तक प्रभावित करेगी।

यूएनएससी प्रस्ताव में निर्धारित अपेक्षाओं से रूस और चीन किस हद तक प्रभावित होंगे, यह देखा जाना  अभी बाकी है, क्योंकि वे तालिबान सरकार के साथ सामान्य व्यापार करने के लिए पश्चिमी देशों की तुलना में अधिक इच्छुक हैं। अपने दूतावासों को खुला रखना तालिबान के अधिग्रहण को “मान्यता” देने के बराबर है।

पश्चिमी देशों को चिंता है कि अफगानिस्तान एक बार फिर से अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद और प्रवासी प्रवाह का मंच बन रहा है। यूरोपीय संघ यूरोप की ओर आने वाले प्रवाह को रोकने के लिए पाकिस्तान और तुर्की के साथ समझौता करना चाहता है। यहां तक कि उनके लिए काम करने वाले अफगानों को स्वीकार करना भी  अब एक बोझ के रूप में देखा जा रहा है। वे तालिबान शासन के अपेक्षाकृत स्थिर अफगानिस्तान को इस शर्त पर स्वीकार करेंगे कि तालिबान कुछ मानवाधिकारों और लिंग संबंधी अपनी  प्रतिबद्धताओं का सम्मान करे। यदि अफगानिस्तान तालिबान के अधीन एक इस्लामिक अमीरात बन जाता है, तो इससे पश्चिमी देशों (और भारत) को इसे मान्यता प्रदान करने में किस हद तक रुकावट पैदा होगी, यह देखा जाना अभी बाकी है।

अमेरिका  तालिबान के साथ लंबे समय से बातचीत  कर रहा है। उनके साथ दोहा समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, उनके बलों और अफगान नागरिकों को निकालने के लिए उनका  राजनेतिक और सुरक्षा सहयोग प्राप्त किया है, हवाईअड्डे पर हमले से तालिबान को रोका है और  इस सब के लिए स्पष्ट रूप से आईएस-के को जिम्मेदार ठहराया है, और इसे हक्कानी समूह से भी जोड़ा गया है। यह सब तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान की वास्तविकता को स्वीकार करने की तत्परता का संकेत देता है।

वित्तीय संपत्तियों को फ्रीज करना, आईएमएफ टूल का उपयोग तालिबान पर यूएनएससी प्रस्ताव में निर्धारित अपेक्षाओं को पूरा करने के  दबाव बिंदु हैं।  प्रश्न  यह उठता है कि क्या तालिबान इन सब के साथ जुड़ सकता हैं? क्योंकि इसका  अभिप्राय धर्म, परंपराओं और संस्कृति के कुछ प्रमुख क्षेत्रों में अपनी मूल विचारधारा को छोड़ना होगा। तालिबान की जीत के निर्धारण में पाकिस्तान की भूमिका पर प्रकाश डाला जा रहा है। पाकिस्तान को मंजूरी देना तालिबान के लिए जितना भी अनिवार्य हो परंतु यह अफगानिस्तान को स्थिर करने की रणनीति में फिट नहीं बैठता ।

अंततः, अफगानिस्तान में आगे क्या होता है, यह  अभी   कहा  नहीं जा सकता ।

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लेखक
कंवल सिब्बल एक प्रतिष्ठित राजनयिक हैं जो भारत सरकार के विदेश सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं। 2017 में भारत सरकार ने उन्हें सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया।

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