शी जिनपिंग के दांव से मुकाबले की रणनीति
प्रो माधव नालापत
उपाध्यक्ष, मणिपाल एडवांस्ड रिसर्च ग्रुप, मणिपाल यूनिवर्सिटी
शी जिनपिंग, जो वर्ष 2012 से ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पद पर बने हुए हैं। वह उन देशों के नेताओं के साथ पोकर का दांव खेल रहे हैं, जिन्हें चीनी गणराज्य अपना रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी मानता है। इनमें मुख्य रूप से अमेरिका, जापान, यूनाइटेड किंगडम और भारत शामिल है। अमेरिका को चीन पर इसलिए रक्षात्मक स्थिति अपनानी पड़ रही है क्योंकि यह देश अभी भी प्रौद्योगिकी, सॉफ्ट पावर और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी है। सैन्य क्षेत्र और युद्ध के नए तरीकों को समझने और उनके साथ सामंजस्य बैठाने में वाशिंगटन थोड़ा धीमा है, जो कि चीन की खुले हथियारीकरण की क्षमताओं का परिणाम है। शी ने इस बदलाव को स्पष्ट कर दिया है, भले ही यह इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों से हो रहा हो। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि यह एक भूल थी। ऐसे नेताओं के आदर्श माओ जेडांग भी रूस के खिलाफ अटलांटिक गठबंधन के साथ हो गये थे, जबकि वे पहले अटलांटिक गठबंधन के घोर शत्रु थे।
माओ द्वारा 1966 में शुरू की गई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के कोलाहल में जो बात भुला दी गई, वह यह है कि माओ को राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के रूप में एक साथी मिल गया, जिसे शीत युद्ध 1.0 का वास्तुकार माना जाता है। इस तरह मास्को के खिलाफ बीजिंग और वाशिंगटन का गठबंधन हुआ । जिसे न तो निक्सन और न ही बराक ओबामा के राष्ट्रपति के रूप में दूसरे कार्यकाल के समापन तक उनका कोई उत्तराधिकारी यह समझ पाया कि मरणासन्न सोवियत रूस (मिखाइल गोर्बाचेव के शासनकाल में सोवियत रूस बिखर गया) की तुलना में चीन अधिक शक्तिशाली दुश्मन है।
इसका अहसास होते ही अमेरिकी विदेश नीति में परिवर्तन शुरू हुआ जिसकी शुरुआत ओबामा ने की। हालांकि अटलांटिकवादियों ने इसका विरोध किया जो अभी भी कुछ हद तक प्रभावशाली थे। ओबामा प्रशासन में हिलेरी क्लिंटन के नेतृत्व में यूरोपीयवादियों ने यह सुनिश्चित किया कि अमेरिका के वैश्विक हितों के लिए अब शीर्ष खतरनाक देश के रूप में रूस नहीं रहा। इस तरह शीत युद्ध 1.0 समाप्त हो गया। इसे बर्लिन, पेरिस और लंदन द्वारा प्रोत्साहित किया गया था। उनको अमेरिका के भीतर अपने प्रभाव की क्षति होने की आशंका थी। 20 वीं शताब्दी के अंतिम समय में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में जो हो रहा था उससे स्पष्ट था कि अमेरिका और चीन के बीच एक नये शीत युद्ध की तैयारी शुरू हो गयी थी।
चीन के विद्वान और प्रवक्ता आज तक इस बात से इनकार करते हैं कि एक नया शीत युद्ध शुरू हो रहा है, जो कि विशेष रूप से दो महाशक्तियों के बीच भू-राजनीतिक पोकर के वैश्विक खेल में महारत हासिल करने की कवायद है। शीत युद्ध 1.0 सोवियत संघ और अमेरिका के बीच हो रहा था जबकि अब इस विशेष सूची में केवल चीन और अमेरिका हैं। भारत एक संभावित महाशक्ति है। 1990 के बाद पहले नरसिम्हा राव और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा शुरू किये गये सुधारों के कारण यह संभव दिख रहा था। हालाँकि, भारत अभी भी उस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया जो माओ ने 1970 के दशक की शुरुआत में हासिल कर लिया था। उस समय वैश्विक नीति का समर्थन करनेवाले अधिकांश चीनी कम्युनिस्ट नेताओं को 1966 के बाद की सांस्कृतिक क्रांति के माध्यम से माओ ने या तो हटा दिया या खत्म कर दिया।
उनकी नई भू-राजनीतिक रणनीति लगभग निर्विरोध विकसित हुई। सांस्कृतिक क्रांति कम होते होते 1976 तक समाप्त हो गयी। 1980 के दशक में डेंग शियाओपिंग द्वारा शुरू किए गए आर्थिक परिवर्तन को कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति द्वारा स्वीकार नहीं किया गया होता, स्थायी समिति भी स्वीकार नहीं करती यदि माओ ने उनके करियर और जीवन को नष्ट नहीं किया होता या सांस्कृतिक क्रांति जारी रहती। डेंग शियाओपिंग, जो पोकर खेलना पसंद करता था, ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में बचे खुचे परंपरावादियों को भी समाप्त कर दिया।
डेंग ने यूरोप और अमेरिका के समक्ष ऐसा मिलनसार चेहरा पेश किया, जैसा पोकर के माहिर खिलाड़ी विरोधियों पर विश्वास जमाने के लिए झांसा देते हैं। डेंग ने अमेरिका को यह विश्वास दिलाया कि चीन उनके लिए कभी भी सोवियत संघ की तरह खतरा नहीं बन सकता। उन्हें आश्वस्त किया कि चीन उनसे केवल “सम्मान” और “समानता” की आकांक्षा रखता है आधिपत्य या प्रधानता नहीं चाहता।
बीजिंग में 1989 के लोकतंत्र समर्थक विरोध-प्रदर्शन पर डेंग की प्रतिक्रिया भी उन्हें यह धोखा देने में सफल रही, कि चीन लोकतंत्र की राह पर अग्रसर था। चीनी वार्ताकारों ने दावा किया कि चीनी लोगों की समृद्धि इस तरह की व्यवस्था के लिए आवश्यक थी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की हड़बड़ी में, जापान और विशेष रूप से अमेरिका ताइवान से जुड़ गए, जिससे चीन में प्रौद्योगिकी और निवेश की बाढ़ सी आ गयी।
डेंग ने 1987 में हू याओबांग को महासचिव के पद से हटा दिया था क्योंकि वह लोकतंत्र के पक्षधर थे। महासचिव झाओ ज़ियांग को तियाननमेन में मई-जून 1989 में प्रदर्शनकारियों के प्रति उनके नरम रुख के कारण हटाया गया था। झाओ के स्थान पर जियांग जेमिन को लाया गया जो डेंग की तरह ही रूढ़िवादी थे, और चीन पर कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता का एकाधिकार बनाए रखने के लिए जो भी आवश्यक था, करने के लिए तैयार थे। जिस तरह से डेंग अपने वैश्विक दौरों पर सफल रहे, जियांग ने खुद को चीन के भीतर अपने कठोर रुख को किसी भी तरह से कमजोर किए बिना, मिलनसार पश्चिमी समर्थकों के रूप में पेश किया। डेंग और जियांग दोनों यूनाइटेड किंगडम सहित दुनिया के अधिकांश देशों को यह समझाने में सफल रहे कि अगले पचास वर्षों के लिए वे एक देश दो प्रणाली के प्रति प्रतिबद्ध थे।
1997 में, एक हैंडओवर हुआ जिसमें यूनाइटेड किंगडम द्वारा वास्तविक अधिकार सौंपा गया जो कागज और शब्दों की प्रतिबद्धता के अलावा कुछ भी नहीं था, हालांकि यह चीनी नेतृत्व की प्रतिबद्धता के प्रति मार्गरेट थैचर को समझाने के लिए पर्याप्त साबित हुआ। थैचर उन यूरोपीय नेताओं में से एक थीं जो मास्को को अटलांटिक देशों के के लिए स्थायी खतरे के रूप में देखती थीं। डेंग-जियांग द्वारा हांगकांग में लोकतंत्र का वादा किये जाने का फल शाननदार रहा।
जब हांगकांग ने चीन की अर्थव्यवस्था के लिए अपना महत्व खो दिया तो उसके फलस्वरूप 21 वीं सदी के पहले दशक के अंत में शेन्ज़ेन, शंघाई और ग्वांगझू का विकास हुआ। जिनका 2027 तक विकास और 2047 तक जारी रखने की अनिवार्यता ने हांगकांग की अर्ध-लोकतांत्रिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचाया। हांगकांग के लाखों निवासियों के लिए यह बदलाव स्पष्ट नहीं था, वे संधियों की पवित्रता में विश्वास करते थे जबकि चीन केवल अपने हितों को पूरा करने वाली संधियों का ही सम्मान करना जानता है।
यदि चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में वीटो पावर के साथ एक स्थायी सीट नहीं दिया गया, तो यूएनएससी में उसका विश्वास काफी कम होगा। भारत शुरू से ही चीन को यूएनएससी के स्थायी पांच में शामिल होने के लिए दबाव दे रहा था। यूएसएसआर उस परिवर्तन को अवरुद्ध करके कम्युनिस्ट दुनिया में बीजिंग-मास्को विवाद को प्रचारित करने के लिए तैयार नहीं था। यह देखते हुए कि चीन के पास ऐसे फैसलों पर वीटो पावर है, भारत के उस सूची में शामिल होने की संभावना शून्य है, कम से कम वीटो पावर के साथ तो बिल्कुल नहीं।
अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में प्राथमिक शक्ति के रूप में अमेरिका की जगह चीन को स्थापित करने के कम्युनिस्ट पार्टी के इरादे को जिस पारदर्शी तरीके से उन्होंने स्पष्ट किया है, उसे लेकर शी जिनपिंग चीन के भीतर भी प्रतिकूल टिप्पणी का विषय रहे हैं। 2012 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनने के बाद से चीन की इस लंबे समय से चली आ रही नीति का अनावरण जिस तेजी से किया जा सकता है, किया गया।
हू जिंताओ के कार्यकाल के दौरान भी, चीन स्पष्ट रूप से एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ा था, जिसका ध्यान जी -2 ट्रायल बैलून पर भी केंद्रित नहीं था जो राष्ट्रपति क्लिंटन के समय में छोड़े गये थे। 1992 में सोवियत संघ के पतन के साथ ही अमेरिका खुद को इकलौता सुपर पावर समझने लगा था। लेकिन जब शी ने कार्यभार संभाला, तब इसे छिपाना मुश्किल होता जा रहा था कि चीन उसका प्रतिद्वंद्वी बन रहा है, 2017 तक तो यह असंभव हो गया था।
पार्टी के रवैये में बदलाव की भविष्यवाणी जो दशकों से की जा रही थी, की उम्मीद करने वालों में से अधिकांश संशयवादी हो गए। चीन की कार्रवाइयों ने यह स्पष्ट कर दिया कि महासचिव को कोई विकल्प नहीं है। जबकि उनके अधीनस्थों ने वैश्विक प्रधानता का उल्लेख करनेवाले अतीत में दिखाए गए तरीकों का त्याग कर दिया है। 2019 तक पार्टी और चीनी लोगों पर अपनी भावनात्मक पकड़ को मजबूत करने के अपने इरादों को शी जिनपिंग ने तनिक भी नहीं छिपाया।
अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत में अभी भी नीति निर्माता मानते हैं कि रियायतों के माध्यम से सद्भावना अर्जित की जा सकती है। उनका मानना है कि चीन ने उन गतिविधियों को स्थगित किया है जिनको वे प्रतिस्पर्धा के लिए उपयोग करनेवाले थे। यह अनुभव पर आशा की जीत को दर्शाता है। भारतीय सेना को कैलाश की ऊंचाइयों से हटने का आदेश दिया गया था। इसके पीछे यह विश्वास था कि चीन भी गोगरा और हॉट स्प्रिंग्स से पीछे हटेगा। चीन ने ऐसा नहीं किया और करेंगे भी नहीं जब तक उनको मजबूर नहीं किया जायेगा। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर को अपने दल में उन लोगों की पहचान करने की जरूरत है जो आश्वस्त थे कि चीन ऐसा करेगा। ऐसी अवास्तविक उम्मीदों वाले लोगों को उन स्थानों से दूर रखने की जरूरत है।
जर्मनी के चांसलर के रूप में एंजेला मर्केल की जगह लेने वाले अर्मिन लासेट कुछ दिनों पहले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के दिल और दिमाग को जीतने के लिए पूर्ववर्ती नेताओं की तुलना में नरम रवैया अपनाते हुए प्रयास भी किया था। इसके लिए उन्हें और जर्मनी को शुभकामनाएँ।
जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने अमेरिका की जगह यूएसएसआर को तरजीह दी थी। इसके पीछे वाशिंगटन द्वारा इस्लामाबाद को गले लगाया जाना था। उसने भारत के साथ किसी भी गठबंधन के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी, सिवाय इसके कि पाक हुक्मरानों के सामने कश्मीर मुद्दे पर आत्मसमर्पण कर दिया जाए। रावलपिंडी और शी जिनपिंग के तहत काम कर रहे केंद्रीय सैन्य आयोग के बीच लौह आलिंगन इतना स्पष्ट हो गया है कि जो लोग यह तर्क देते हैं कि भारत के पास अब अमेरिका को छोड़ चीन की ओर चलने या तटस्थ रहने का विकल्प है, वे आभासी वास्तविकता में जी रहे हैं। उनकी नीति घातक हो सकती है। यह 2013 से सीपीईसी की शुरुआत के साथ ही स्पष्ट हो गया था, लेकिन 2017 तक इस स्तंभकार के लिए भी अपरिचित रहा। 2020 की घटनाएं वास्तविकता को प्रमाणित करती हैं। चीन के साथ शी के शासनकाल में भारत के साथ तालमेल की उम्मीद करना भी बेमानी है।
SARS2 को 2019 के दौरान वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में बनाया गया था। इसे चीन को माफ करनेवाले अधिकांश लोग भी स्वीकार करने लगे हैं, जिन्होंने दावा किया था कि 1500 किलोमीटर दूर एक गुफा में पाये जानेवाले चमगादड़ इसके लिए जिम्मेदार थे। यह सुनिश्चित करने के लिए अनुसंधान शुरू हो गया है कि अल्फा और डेल्टा वेरिएंट को भी डब्ल्यूआईवी के समान चीन के केंद्रों में अस्तित्व में लाया गया था। SARS2 महामारी ने डोनाल्ड जे ट्रम्प की हार को देखा, हालांकि उनके उत्तराधिकारी जो बिडेन उतने विश्वसनीय नहीं दिख रहे हैं जितने कि पद ग्रहण करने से पहले लगते थे। संभावना है कि जीएचक्यू रावलपिंडी-पीएलए गठबंधन डेल्टा संस्करण और अनियमित युद्ध के अन्य हथियार (आर्थिक और सामाजिक) के जरिये जल्दी नहीं तो 2024 में मोदी शासन का समापन देखना चाहेंगे।
रूसी संघ के साथ मिलकर चीन अमेरिका में काम कर रहा है, भारत में उसका भागीदार पाकिस्तान है न कि रूस। रूस का कार्य यह सुनिश्चित करना है कि यूएस-भारत सैन्य गठबंधन कभी न हो। एस-400 सौदा सहित अन्य के पूरा होने की संभावना है। भारत को अपने भीतर अवलोकन करना होगा, ताकि अदम्य सशस्त्र बल और भारत के लोग देश के भविष्य को नष्ट करनेवाली मंशा के खिलाफ मजबूत हों। जितनी जल्दी अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, भारत, ब्रिटेन, इंडोनेशिया, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका और फिलीपींस यह समझ लें कि शीत युद्ध-2 भ्रम नहीं सच्चाई है उतना ही बेहतर। जब तक वे ऐसा नहीं करते, शी जिनपिंग उस हाई-स्टेक पोकर गेम से विजेता बनकर उभरेंगे जो वह बीजिंग में केंद्रीय सैन्य आयोग में रणनीतिक योजनाकारों के सहयोग से जो बिडेन, नरेंद्र मोदी और अन्य देशों के नेताओं के साथ खेल रहे हैं।
सीएमसी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव के लिए काम करता है, जिसने वर्दीधारी सेवाओं को अपनी आंतरिक और बाहरी नीतियों के नेतृत्व में रखा है। जिन हाथों से शी इतने पारदर्शी तरीके से खेल रहे हैं, उसे जल्द ही उजागर करने की जरूरत है। जिस तरह चर्चिल, रूजवेल्ट (प्रतिद्वंद्वियों और पूर्ववर्ती नेताओं के विपरीत) और स्टालिन ने 1941 से 1945 तक एकजुटता दिखायी थी, उसी तरह वास्तविकता को समझते हुए एकजुट होना ही एकमात्र तरीका है। पोकर के इस खेल में इससे ऊंचा दांव नहीं हो सकता। इस सदी के बाकी हिस्सों में वैश्विक व्यवस्था का भविष्य इस पर निर्भर हैं। क्या वहाबी इंटरनेशनल के साथ मिलकर सत्तावादी राज्य करेंगे, इनका असाधु गठबंधन लोकतंत्र पर हावी होगा या नहीं, यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब निकट भविष्य में निहित है।
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