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तालिबान के साथ संपर्क : समर्थन नहीं है

सुशांत सरीन
शुक्र, 03 सितम्बर 2021   |   4 मिनट में पढ़ें

तालिबान के साथ संपर्क : समर्थन नहीं है

सुशांत सरीन

दोहा में भारतीय राजदूत द्वारा कतर की राजधानी में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय  प्रमुख के साथ बैठक करने की खबर आने के बाद से  सोशल मीडिया तथा  अन्य मीडिया माध्यमों  पर टिप्पणियों की झड़ी लग गई। कुछ भारतीय नाराज हैं, कुछ लोग असंतुष्ट हैं, और अन्य कुछ अभी तक  यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि हो क्या रहा है। परंतु अधिकांश प्रतिक्रियाएं आशा से परे थी क्योंकि हर कोई स्वयं को अधिक मान रहा था। सरल शब्दों में देखा जाए, तो संपर्क करने और संचार लाइनों को खुला रखने  को  किसी व्यक्ति, समूह या शासन का  समर्थन करना या उसे  मान्यता प्रदान करने के रूप में नहीं माना जा सकता , आधिकारिक मान्यता देने के रूप में तो बिल्कुल  नहीं।

राजनयक खेल के अलिखित नियमों में से एक यह है कि राजनयिकों और पत्रकारों को कभी भी किसी व्यक्ति मिलने से इंकार नहीं करना चाहिए,फिर चाहे वह कोई​​ घृणा करने वाला व्यक्ति ही क्यों न हो। इस नियम में निश्चित रूप से  एक चेतावनी हैं, परंतु वह अन्य अवसरों के लिए हैं। दोहा की बैठक  ऐसी पहली बैठक  नहीं है जिसमें किसी भारतीय अधिकारी ने तालिबान  पक्ष के किसी प्रतिनिधि से भेंट की है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे अनेक अवसर  आए हैं जब तालिबान के साथ संपर्क स्थापित हुआ है। लेकिन उन बैठकों को गुप्त रखा गया और आधिकारिक तौर पर  इसे कभी स्वीकार नहीं किया गया। जब इस विषय में पूछा गया, तो विदेश मंत्रालय   द्वारा अस्पष्ट रूप से यह उत्तर दिया गया कि सरकार अफगानिस्तान में  अपने सभी हितधारकों के संपर्क में है। यद्यपि इस बार  विदेश मंत्रालय  द्वारा बैठक की घोषणा करने के लिए एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी है।  यह सर्वसंबंधितो के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि सरकार  को तालिबान के साथ संपर्क करने में कोई संकोच नहीं है।

लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना कि भारत तालिबान शासन को आधिकारिक मान्यता देने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, दूर की कौड़ी है। यह मुलाकात” मधुर संबंधों की शुरुआत” नहीं है जिसकी कुछ लोग कल्पना कर रहे हैं। इस सब से इतर, अभी के लिए, दोनों पक्ष  इस बैठक का उपयोग सामरिक और  परस्पर आदान -प्रदान के उद्देश्यों के लिए कर रहे हैं !: भारत को  वहाँ से अपने नागरिकों के साथ साथ  धार्मिक अल्पसंख्यकों और अफगान मित्रों को भी निकालना है जो भारत में शरण मांग रहे हैं; तालिबान को दुनिया के सामने एक अच्छे  व्यक्तित्व वाला चेहरा पेश करना हैं क्योंकि उसे  अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने की  लालसा  हैं और शायद  इस संबंध में भारत को वे एक महत्वपूर्ण देश के रूप में देखता हैं। भारत के आईएमए में सेना की ट्रेनिंग के कारण शेर मोहम्मद स्टेनकज़ई को भारत  से संपर्क के लिए एक आदर्श व्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है।

हाल ही में, स्टैनेकजई ने न केवल तालिबान के अमीरात की विदेश नीति की व्यापक रूपरेखा के अपने आधिकारिक संबोधन में, आपितु कुछ साक्षात्कारों में भी भारत के संबंध में अच्छी बातें कही हैं। आईएमए कनेक्शन पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए उपयोगी है – अधिकांश भारतीय  इस संबंध में अनभिज्ञ हैं। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि उन मीठी बातों में नही फँसना चाहिए जो स्टैनेकजई भारत के कानों में  गुनगुना रहा है ।  यही स्टेनकजई  उस समय भारत के प्रति बिल्कुल आसक्त नहीं दिखे ,जब कुछ समय पूर्व ही उन्होंने भारत पर ४० वर्षों तक अफगानिस्तान में नकारात्मक भूमिका निभाने का आरोप लगाया था।

जो भी हो, तालिबान का दोहा राजनीतिक कार्यालय अनेक व्यक्तियों से बहुत कुछ कह रहा है, और आश्वासन दे रहा है जो ‘अंतर्राष्ट्रीय समुदाय’ के कानों को मधुर लग रहा है। परंतु अफगानिस्तान की भूमि पर तालिबान सैन्य कमांडरों और पैदल सैनिकों द्वारा इनमे से अधिकांश आश्वासनो का उल्लंघन  किया जा रहा है।

हालांकि भारत तालिबान के साथ संचार  चैनलों को खुला रखने के विरुद्ध नहीं होगा, लेकिन यह संभावना बहुत कम  है कि भारत  तालिबान को मान्यता देने में जल्दबाजी करेगा।  वर्तमान में, अन्य अधिकांश देशों की भांति भारत भी अभी “देखो और प्रतीक्षा करो “की नीति अपना रहा है। भविष्य मे इस बात  पर  बहुत कुछ निर्भर करेगा कि तालिबान अफगानिस्तान के भीतर के आतंकवादी गुटो पर कार्यवाही करने  के संबंध मे  वार्ता करता है अथवा नहीं। उतना ही महत्वपूर्ण यह भी होगा कि तालिबान अपने ही देश में कैसा व्यवहार करता हैं। यदि उनका शासन १९९० के दशक का   प्रतिरूप है, तो यह  एक अरुचिकर शासन के रूप मे अलग -थलग रहेगा। भारत अंतरराष्ट्रीय  सहमति  से अलग होकर  इस तरह के शासन के साथ जुड़ना नहीं चाहेगा।

लेकिन अफगानिस्तान पर भारत की नीति अमेरिका के निर्णय पर  किसी भी रुप में निर्भर नहीं होनी चाहिये। भले ही अमेरिका और उसके कुछ सहयोगी   आईएसकेपी का सहारा लेकर एकअपरिवर्तित, असंरचित तालिबान को मान्यता प्रदान करने तथा उनसे जुड़ने का निर्णय   ले ले परंतु भारत को तालिबान से दूर रहने में संकोच नहीं करना चाहिए !; इसके विपरीत, यदि तालिबान वास्तव में अपने आश्वासनों पर अमल करता है और भारत के हितो का ध्यान रखता है, तो भले ही अमेरिका और उसके सहयोगी तालिबान से संबंध ना रखे, भारत को रखना चाहिए। लेकिन यह सब अभी  दूर है।

एक बैठक, और संभवत आगे और भी अनेको बैठके होगी, परंतु इनसे गलत निष्कर्ष   निकालने की जल्दी नही करनी चाहिए।   मानदंडों का  उदेश्य भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना होना चाहिए,   केवल काल्पनिक अथवा उदासीन धारणाओं पर नही । निश्चित रूप से अफगानिस्तान पर अलग-थलग न पड़ने वाले  स्पष्ट तर्कों के आधार पर यह निर्णय  करना होगा कि भारत अमीरात को मान्यता  देगा अथवा नहीं।

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लेखक
सुशांत सरीन आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं और चाणक्य फोरम में सलाहकार संपादक हैं। वह पाकिस्तान और आतंकवाद विषयों के विशेषज्ञ हैं। उनके प्रकाशित कार्यों में बलूचिस्तान : फारगॉटेन वॉर, फॉरसेकेन पीपल (2017), कॉरिडोर कैलकुलस : चाइना-पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर और चीन का पाकिस्तान में निवेश कंप्रेडर मॉडल (2016) शामिल है।

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