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ईरान में राष्ट्रपति चुनाव के भू-राजनीतिक प्रभाव की समीक्षा

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)
शुक्र, 30 जुलाई 2021   |   6 मिनट में पढ़ें
1979 के बाद जब ईरानी क्रांति तेहरान में सड़कों पर उतरी तो ईरान में एक ऐसे शासन की नींव पड़ी जो पश्चिमी देशों के लिए मित्रवत नहीं था. ईरान मध्य पूर्व के भू-राजनीतिक वातावरण में एक नया स्थान बनाने पर आमादा है,  हमारे पास भी ईरान की महत्वाकांक्षाओं पर केंद्रित एक अविश्वसनीय पॉवर गेम है। ईरान की आंतरिक राजनीति और मुद्दे साथ ही इसके विदेशी मामलों में भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की रुचि है क्योंकि मध्य पूर्व के शक्ति संतुलन को ये विभिन्न तरीकों से प्रभावित करते हैं।
ईरान से संबंधित विभिन्न रणनीतिक मुद्दों में वैचारिक समर्थकों के आधार पर ईरान और सऊदी अरब में शिया-सुन्नी विवाद का उदय हुआ । पश्चिमी देशों के प्रति ईरान का रवैया निरंतर विरोधी रुख लिए रहा जबकि फारस की खाड़ी में स्थित उसके पड़ोसी राष्ट्र पश्चिमी देशों की सहायता से व्यापार और ऊर्जा के क्षेत्र में फल-फूल रहे हैं। ईरान अपनी सामरिक क्षमता को बढ़ाने के लिए परमाणु हथियार हासिल करने की दृढ़ इच्छा रखता है, जो शक्तिशाली देशों और पड़ोसी राष्ट्रों को स्वीकार नहीं है। इसी के कारण वह दुनिया के अधिकांश देशों के लिए एक पहेली बना हुआ है।
सबसे अधिक चिंता का विषय यह है कि इजरायल के साथ ईरान की स्पष्ट दुश्मनी है। यह इजरायल को राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं देता। उसका मानना है कि पश्चिमी देश उसे इस्लामी दुनिया पर थोप रहे हैं। वह किसी भी अरब राष्ट्रों की तुलना में फिलीस्तीन का अधिक समर्थन करता है। वह खुद को इस्लामिक देशों का अगुवा मानता है। उसने इजरायल से लड़ने के लिए एक शस्त्रागार भी बनाया है। साथ ही रणनीतिक तौर पर हथियारों को इजरायल की सीमाओं के आसपास तैनात भी किया है।
ईरान ने अपने उद्देश्यों को साधने के लिए छद्म योद्धाओं का एक घातक समूह तैयार किया है। उनको वित्तपोषित कर, सशस्त्र, प्रशिक्षित और वैचारिक रूप से तैयार किया गया है। ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के रूप में एक मजबूत विशेष सशस्त्र बल भी तैयार किया गया है जिनका प्रमुख कार्य इस्लामी व्यवस्था की रक्षा करना, विदेशी हस्तक्षेप से प्रेरित “विकृत आंदोलनों” को दबाना और तख्तापलट को रोकना है। इसने रूस के सहयोग से सीरिया में अपनी श्रेष्ठता स्थापित की है और इराक में शिया मिलिशिया को अपने पक्ष में करने में सफलता अर्जित की है।
मैंने ईरान के इर्द-गिर्द घूमने वाली विभिन्न सामरिक चिंताओं का वर्णन केवल इसलिए किया है क्योंकि यह मध्य पूर्व के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राष्ट्र है। इसकी स्थिरता और रणनीतिक महत्वाकांक्षाएं बहुत हद तक यह तय करेंगी कि क्या मध्य पूर्व में शांति रहेगी, यह संघर्ष से मुक्त रहेगा जिससे अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक फोकस इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर स्थानांतरित होगा।
ईरान में राष्ट्रपति का चुनाव 18 जून 2021 को हुए हैं। नेतृत्व परिवर्तन होने वाला है।  अगले राष्ट्रपति के रूप में इब्राहिम रायसी का चयन हुआ है। आठ साल के टर्म बार के कारण हसन रूहानी चुनाव लड़ने के लिए योग्य नहीं थे। रायसी ऐसे समय में राष्ट्रपति का पद संभालेंगे जब वियना में ज्वाइंट कंप्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन(जेसीपीओए) के सुधार पर बातचीत चल रही है। जेसीपीओए डोनाल्ड ट्रम्प के कार्य़काल में निलंबित रहा क्योंकि अमेरिका इससे बाहर हो गया था। 2018 में अमेरिकी प्रतिबंधों के फिर से लागू होने के साथ ही अन्य G6 + 1 राष्ट्रों के करने लायक कुछ रह नहीं गया था।
राष्ट्रपति चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगाहें इस बात पर लगी हैं कि चुनाव परिणाम का ईरान की आंतरिक गतिविधियों, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या असर पड़ता है। राष्ट्रपति के चुनाव के लिए ईरानी प्रणाली में एक अभिभावक परिषद है जो छह इस्लामी फकीह (इस्लामी कानून के विशेषज्ञ) से बना है, जिनको सर्वोच्च नेता (अली खमेनी) द्वारा चुना गया है। छह न्यायविद जो कानून के अन्य विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञ होते हैं और जिनको मजलिस (संसद) द्वारा निर्वाचित किया जाता है। न्यायविदों में न्यायपालिका के प्रमुख द्वारा मनोनीत भी होते हैं, जिनको सर्वोच्च नेता द्वारा नियुक्त किया जाता है।
इस चुनाव में यह देखा गया कि नरमपंथी प्रवृत्तियों वाले नेता जो सड़कों पर उतर कर क्रांति कर रहे थे, उनको खदेड़ने का प्रयास किया गया। सिस्टम द्वारा यह सुनिश्चित किया गया कि लगभग सभी नरमपंथियों को गार्जियन काउंसिल द्वारा खारिज कर दिया जाय और एक सबसे अपेक्षित उम्मीदवार के लिए जगह छोड़ दी गई। वह न्यायपालिका के प्रमुख, इब्राहिम रायसी हैं और सर्वोच्च नेता के उम्मीदवार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनको सर्वोच्च नेता बनने के लिए तैयार किया जा रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बाहरी दुनिया के साथ अधिक जुड़ाव रखने वाले उम्मीदवारों को जानबूझकर छोड़ दिया गया।
पश्चिमी देशों के लिए रायसी का चयन बढ़िया नहीं माना जायेगा क्योंकि टाइम मैगजीन के अनुसार “1988 में ईरान-इराक युद्ध के अंतिम दिनों में राजनीतिक कैदियों और आतंकवादियों को सामूहिक सजा देने में उनकी भूमिका ….. और ईरान के मुख्य न्यायाधीश के रूप में,  वह भी इस तथ्य के लिए जिम्मेदारी वहन करते हैं कि केवल चीन ही प्रत्येक वर्ष अधिक नागरिकों को मार डालता है। एक कट्टर और पश्चिम के साथ जुड़ने की अनिच्छा, रायसी का दृष्टिकोण हो सकता है,  लेकिन आनेवाले समय में चीजें उनके लिए इतनी आसान नहीं होंगी।
सर्वप्रथम ईरान में कट्टरपंथियों के खिलाफ धीरे-धीरे नाराजगी बढ़ रही है। जब 2015 में जेसीपीओए पर हस्ताक्षर के बाद प्रतिबंधों को हटा दिया गया, तो ईरान की अर्थव्यवस्था 12.5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि पर पहुंच गई जो यह बताती है कि ईरान की आर्थिक स्थिति क्या हो सकती है, अगर इसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय का हिस्सा बना दिया जाये। ईरान की मुद्रास्फीति दर, जो वहां के नागरिकों के लिए वास्तविक आर्थिक पीड़ा का एक पैमाना है,  2017 में 10 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 40 प्रतिशत हो गई। वर्तमान में यह लगभग 30 प्रतिशत पर बनी हुई है। बेरोजगारी 12 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है। कोविड ने कष्ट को और बढ़ा दिया है और कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सकता कि महामारी की बाद की लहरों के आगमन पर क्या हो सकता है। यही कारण है कि खमेनी के आग्रह पर रायसी भी चाहते हैं कि प्रतिबंध जल्दी हटे। इसके लिए वियना जेसीपीओए की बहाली पर बातचीत चल रही है।
ईरान की आर्थिक दुर्दशा को महसूस करते हुए, बड़ी शक्तियाँ इसके परमाणु हथियार कार्यक्रम पर अंकुश लगाना चाहेंगी। हालांकि रूस और चीन की इसमें उदारवादी भूमिका होगी। फिलहाल स्थिति 2015 से काफी अलग है जब जेसीपीओए पर हस्ताक्षर किए गए थे। रूस-चीन समीकरण स्पष्ट रूप से मजबूत है, हालांकि उनके उद्देश्यों में स्पष्टता नहीं है। वे मध्य पूर्व के मुद्दों पर अधिक ध्यान देंगे या इंडो-पैसिफिक में अमेरिकी ध्यान को स्थानांतरित करने से रोकेंगे, यह देखना है।
जेसीपीओए और प्रतिबंधों के मुद्दे को किस तरह से संभाला जाता है, उससे दूसरा सबसे ज्यादा चिंतित देश है इजरायल। एक नई इजरायली सरकार जो गाजा में हिंसा की एक गंभीर लड़ाई से रूबरू है वह नए ईरानी नेता को विस्फोट से उड़ाने के बारे में सोच नहीं सकती। दोनों पक्षों का मूल मंत्र है कट्टरवाद। दोनों से ही नरमपंथ अपनाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। अंतर्राष्ट्रीय चिंता के परिदृश्य में बदलाव के लिए मध्यपूर्व को एक क्षेत्र के रूप में देखा जा रहा है। मुझे इतना यकीन नहीं है कि अमेरिका अपने बैग पैक कर सकता है।  ऊर्जा एक अप्रासंगिक कारक बन जाने के बावजूद यहां उसके कई दांव हैं। वहां तैनात अमेरिकी मिसाइल प्रणालियों को वहां से हटाने की खबरें आ रहीं हैं, जो अभी स्पष्ट नहीं हैं। मैं कहूंगा कि मध्य पूर्व का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। अफ़ग़ानिस्तान से सेना की वापसी का इस क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसकी भविष्यवाणी करना अभी मुश्किल है।
ईरान के आंतरिक कारक बढ़ती दिलचस्पी का विषय है। वहां अशांति पैदा हो रही है, लेकिन असली तीव्रता का अनुमान या असंतुष्ट नेतृत्व की क्षमता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यदि प्रतिबंधों में ढील शुरू होने के बाद अर्थव्यवस्था में सुधार होता है, तो असंतुष्टों का शोर उत्तरोत्तर कम होता जाएगा। अधिकांश लोग तब क्रोधित होते हैं जब वे असहज होते हैं और भविष्य में अपने बच्चों के लिए दुर्दशा नहीं देखना चाहते हैं। राजनीतिक और वैचारिक नेतृत्व, जो ईरान के मामले में एक है, इस बारे में पूरी तरह से सचेत है और इसलिए वियना वार्ता का सकारात्मक परिणाम होते देखना चाहता है। ईरान कठिन सौदेबाजी कर रहा है लेकिन उसके पास समय नहीं है,  यह बात प्रतिद्वंद्वी वार्ताकारों को भी अच्छी तरह से पता होगा। वार्ता का परिणाम कुछ भी हो, ईरान अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए अभियान अवश्य शुरू करेगा। क्योंकि यह बहुत हद तक उसकी समग्र रणनीतिक क्षमता को भी बढ़ाएगा।
किसी असंबद्ध क्षेत्र द्वारा इज़राइल और ईरान के बीच तनाव पैदा करने का प्रयास हो सकता है, जो चिंता का विषय है। तनाव बढ़ने पर दोनों पक्षों का पीछे हटना मुश्किल लगता है। बड़ी ताकतों को इस बारे में चिंता करनी चाहिए। अमेरिका और पश्चिमी देश यहां अस्थिरता नहीं देखना चाहेंगे, जबकि इजरायल इस पर विचार कर सकता है। मध्य पूर्व में तनाव के बारे में रूस और चीन क्या सोचते हैं, यह परीक्षा का विषय है। एक बात जिसके बारे में हम निश्चित हो सकते हैं, वह यह है कि ईरान अपने कट्टरवादी रुख को चतुराई से कमजोर कर सकता है, भले ही एक कट्टरपंथी राष्ट्रपति के पद पर काबिज हो। एक बार राहत मिलने के बाद उससे रियायतें निकालना हमेशा की तरह मुश्किल होगा। परमाणु हथियारों का खेल सिर्फ वियना में थमने की संभावना नहीं है।
अंत में, भारत-ईरान संबंधों पर दो शब्द। जब ईरान और पश्चिम के बीच बातचीत होती है, तो भारत-ईरान संबंधों के भी रास्ते खुलते हैं। अफगानिस्तान, ऊर्जा, चाबहार और अफगानिस्तान को उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारा से जोड़ने वाली बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं, प्रतिबंधों से प्रभावित होनेवाले प्रमुख क्षेत्र हैं। पाकिस्तान के साथ ईरान के संबंधों का असर ज्यादातर भारतीय हितों के खिलाफ रहा है, खासकर जम्मू और कश्मीर से संबंधित मुद्दे पर। पिछले कई वर्षों में, दोनों राष्ट्रों ने अपनी झिझक को त्य़ाग कर आगे बढ़ने की इच्छा दिखाई है, जो परिस्थितियों और कभी-कभी रवैये के कारण बाधित हुआ है। ईरान की अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार की इच्छा के साथ, हम एक ऐसा अवसर देख सकते हैं जब वह भारत के साथ सभी क्षेत्रों में सहयोग के लिए खुला होगा। हालांकि, इस तरह के सहयोग में कई बाधक भी होंगे,  चीन उनमें से एक है;  पाकिस्तान भी है। नई दिल्ली और तेहरान में चर्चाओं के दौर से बदलाव के संकेत हैं। भारत को इस अवसर का उपयोग करना चाहिए और तेहरान के बारे में सारी अवधारणाओं को दूर करना चाहिए। शायद ईरान के साथ परिवर्तनकारी संबंधों का समय आ गया है।


लेखक
लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय सेना के श्रीनगर कोर के पूर्व कमांडर रहे हैं। वह रेडिकल इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमने वाले मुद्दों पर विशेष जोर देने के साथ एशिया और मध्य पूर्व में अंतर-राष्ट्रीय और आंतरिक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वह कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और रणनीतिक मामलों और नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमने वाले विविध विषयों पर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में बड़े पैमाने पर बोलते हैं।

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