नरसिम्हा राव की संशोधित विरासत @100
टीपी श्रीनिवासन
पूर्व प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव अपने पीछे इतनी समृद्ध विरासत छोड़कर गये हैं कि उनके शताब्दी समारोह का एक पूरा वर्ष भी इसके साथ न्याय नहीं कर पायेगा। परंतु वर्ष 2020 में उनकी कुछ नीतियों, विश्वासों और अपेक्षाओं का महत्वपूर्ण प्रस्थान हो गया। जिस तरह उन्होंने अभूतपूर्व वैश्विक परिवर्तनों , विशेष रूप से सोवियत संघ के विघटन (अप्रत्याशित महामारी के कारण आज का वैश्विक परिदृश्य) रूपी परिवर्तनों का सामना करते हुए भारत की पुन खोज की । घरेलू और विदेश नीतियों की उनकी विरासत को वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए संशोधित किया जा रहा है। .
अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण और उदारीकरण, उनके साहसी कदम थे जिसके लिए उन्हें आज भी सबसे अधिक याद किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप उनके पूर्ववर्तियों द्वारा आधी सदी से भी अधिक समय में तैयार किये गए राजनीतिक और आर्थिक स्वरूप में अत्यधिक परिवर्तन हुआ। ऐसे परिवर्तन शीत युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद एकध्रुवीय दुनिया द्वारा तय किये गए थे, परंतु श्री राव में उस स्थिति मे एक व्यवसायिक की भाँति कूद जाने और तैरने का साहस था। अर्थव्यवस्था में रिकॉर्ड वृद्धि और नए राजनीतिक संबंधों ने 2020 तक नई व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान किया परंतु वर्ष 2014 के पश्चात् निजीकरण अधिक महत्वपूर्ण हो गया था। फिर भी, अर्थव्यवस्था पर श्री राव की छाप महत्वपूर्ण बनी रही।
श्री राव वर्ष 1993 में चीन और 1994 में अमेरिका की अपनी यात्राओं के कारण स्वयं को और अधिक गोरर्वांवित अनुभव करते थे, इस यात्रा ने चीन और अमेरिका के साथ हमारे भविष्य के संबंधों की नींव रखी थी। श्री राजीव गांधी द्वारा 1988 में सीमा मुद्दे को शेष मुद्दों से अलग रखने के लिए सहमत होने के बाद, श्री राव ने एक कदम और आगे बढ़ाया और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति समझौता किया जिसके फल स्वरूप, यह विश्व की सबसे शांतिपूर्ण भूमि सीमाओं में से एक बन गयी और इसके फलस्वरूप एल ए सी पर अनेक वर्षो तक शांति बनी रही।
लेकिन 2020 में जो हुआ वह भारत-चीन सबंधो के लिए पूरी तरह विध्वंसक था, ऐसा सभी रणनीतिकारों और राजनीतिक दलों ने स्वीकार भी किया। भारतीय और चीनी विदेश मंत्रियों के बीच पांच सूत्री मास्को समझौते से पूर्व के समझौतों की पुष्टि हुई, परंतु चीन ने 1993 के समझौते के बिल्कुल विपरीत काम किया। आज जमीनी स्थिति यह है कि चीन के साथ संबंधों में राव विरासत की वापसी संभव नही है ।
श्री राव 1994 की अपनी वाशिंगटन यात्रा को एक बड़ी उपलब्धि मानते थे क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि भविष्य में परमाणु परीक्षण नहीं करने की उनकी सहमति के कारण उन्होंने क्लिंटन से एक बड़ी कीमत वसूल की। दोनो और से दिया गया एक संयुक्त बयान परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रति अमेरिका की प्रतिबद्धता का संकेत था, परंतु किसी भी बहुपक्षीय दस्तावेज में यह परिलक्षित नहीं हुआ।
श्री राव की परमाणु नीति रहस्यमय हो गयी थी , क्योंकि उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि उनके परमाणु रहस्य उनके साथ उनकी कब्र तक जाएंगे। और उन्होंने मुझे जो बताया, उससे यह स्पष्ट भी था। एक पूर्व अधिकारी ने रहस्योद्घाटन किया था कि वर्ष 1998 में प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को परमाणु परीक्षण के लिए श्री राव द्वारा प्रोत्साहित किया गया था परंतु परमाणु परीक्षण के उपरांत उनके साथ हुई मेरी बातचीत और उपलब्ध साक्ष्य परस्पर मेल नहीं खाते। उन्होंने मुझे बताया था कि 1998 के परीक्षण अनावश्यक थे क्योंकि उन्होंने 1994 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ वाशिंगटन में अपनी मुलाकात के दौरान भारत को इस दुविधा से बाहर निकालने का रास्ता खोज लिया था।
यह आम धारणा है कि डॉ आर. चिदंबरम और डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम द्वारा लगातार उकसाने के कारण श्री राव प्रधान मंत्री के रूप में अपने पूरे कार्यकाल के दौरान परमाणु परीक्षण की वांछनीयता के विषय में वार्ता करते रहे।
उस विचारधारा के अनुसार, राव वर्ष 1995 में परीक्षण के कगार पर थे, जब तत्कालीन अमेरिकी राजदूत फ्रैंक विस्नर ने पोखरण में असामान्य गतिविधियों के कुछ उपग्रह चित्रों के साथ उनसे मुलाकात करके अपनी नाराजगी व्यक्त की और साथ ही परीक्षण होने की स्थिति में व्यापक आर्थिक प्रतिबंधों की चेतावनी भी दी।। कहा जाता है कि परीक्षण रोकने के लिए राष्ट्रपति क्लिंटन ने 1995 में श्री राव के साथ व्यक्तिगत रूप से बात की थी।
हालांकि, उस समय के घटनाक्रम से यह संकेत मिलता है कि 1995 में परीक्षण करने का उनका कोई इरादा नहीं था, हालांकि उन्होंने डॉ चिदंबरम और डॉ कलाम को कम से कम समय में परीक्षण करने की पूरी तैयारीरखने के लिए कहा था। १९९५ में, एक शाफ्ट जो तैयारी के लिए खोला गया था उसके उपरी भाग में जाने वाले रास्ता तीन चौथाई पानी से भरा हुआ पाया गया था। नवंबर १९९५ में अमेरिकी उपग्रह ने जो असामान्य गतिविधि देखी, वह मरम्मत का काम था जो उस समय किया जा रहा था। श्री राव का विस्नर को जवाब था कि आप अपने राष्ट्रपति को सूचित कर दे कि “मैं अपना वचन हमेशा निभाता हूं।” यह कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी परीक्षणों को मंजूरी नहीं दी।
मार्च 1999 में श्री राव के साथ बॉस्टन यात्रा के दौरान वाशिंगटन हवाई अड्डे पर उनसे मेरी दो बड़ी चर्चा हुई । वो थोड़ा कमजोर हो गये थे परंतु उसकी याददाश्त और दिमाग हमेशा की तरह तेज था। वह मननशील मूड में थे और ऐसा लग रहा था कि वे अपने दिल की बात कहने के लिए तैयार है। जब उन्होंने मुझसे पूछा कि परीक्षणों के लिए अमेरिकी प्रतिक्रिया कैसी थी? तब मैंने उनसे पूछ लिया कि क्या उन्होंने 1995 में राष्ट्रपति क्लिंटन से बात करने के पश्चात् परीक्षणों को रोक दिया था। उनका जवाब स्पष्ट और तलख था। उन्होंने कहा कि इस कहानी में कोई सच्चाई नहीं है और उन्होंने 1994 में यह निर्णय कर लिया था कि भारत को परमाणु परीक्षणों की आवश्यकता नहीं है। मैं थोड़ा अवाक रह गया, मैंने बातचीत को और आगे बढ़ाया। उन्होंने बताया कि 1994 में राष्ट्रपति क्लिंटन के साथ उनकी मुलाकात इस मामले में निर्णायक थी। उन्होंने कहा कि, पहली बार, अमेरिका परमाणु हथियारों को कम करने और खत्म करने के लिए निर्णायक रूप से आगे बढ़ने पर सहमत हुआ था और बदले में उन्होंने परीक्षण नहीं करने के लिए अपनी सहमति दी।
यह मेरे लिए एक बहुत ही सरल व्याख्या थी और मैंने उनसे कहा कि बाद में, अमेरिका ने हमारे इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था, कि भारत और अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र में इस तरह की घोषणा करनी चाहिए। अमेरिका ने न्यूयॉर्क में कहा कि इस प्रकार के किसी भी द्विपक्षीय निर्णय को बहुपक्षीय मंचों में नहीं लाया जा सकता । इसके पश्चात् श्री राव ने विषय बदल दिया और इस विषय पर आगे और चर्चा से इनकार कर दिया।
श्री राव द्वारा 1994 में राष्ट्रपति क्लिंटन को दिया गया वचन उनके साथ ही दफन हो गया। दिलचस्प बात यह है कि परीक्षणों के बाद अमेरिका के साथ हुई हमारी अनेक चर्चाओ में किसी ने भी श्री राव द्वारा की गई प्रतिबद्धता का उल्लेख नहीं किया। निश्चित रूप से वे इस बात से निराशा होगे कि बिना परीक्षण के अमेरिका के साथ अप्रसार के मुद्दे के समाधान मे उन्होंने जो महत्वपूर्ण पहल की, वह सफल नहीं हुई।
100 वर्ष में भी राव की विरासत जीवित है, परंतु उनकी बुद्धि और दूरदर्शिता के अनुरूप नहीं है। वर्तमान नेतृत्व परिवर्तनों के साथ उन्हीं मुद्दों से निपटने में जुटा हुआ है, जबकि भारत के इतिहास में श्री राव का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है।
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Anil Yadav