• 27 March, 2024
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अफगानिस्तान के बाद की भू-राजनीति में ईरान की भूमिका

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)
गुरु, 23 सितम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

भू-राजनीतिक हलकों में यह आम धारणा रही है कि शिया बाहुल्य ईरान, सुन्नी विचारधारा वाले तालिबान का सदा से विरोधी है। हालाँकि, मध्य पूर्व और अफगानिस्तान पर ध्यान केंद्रित करने वाली पत्रकार शैली किटलसन लिखती हैं कि “तेहरान के शिया शासन के पास सुन्नी चरमपंथियों का समर्थन करने के लिए रणनीतिक, आर्थिक, वैचारिक और परिस्थितिजन्य कारण हैं”। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि इस क्षेत्र की व्यापक समझ एक अलग अवधारणा के साथ मौजूद है।

ईरान शिया विचारधारा वाला देश है जबकि सउदी सुन्नी इस्लाम के भीतर एक अधिक अस्पष्टवादी विचारधारा में विश्वास करता है, जिसने पूर्व से ईरान को घेरने के लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान में इसे बढ़ावा दिया है। इस प्रकार पाश्चात्य क्षेत्रों के सुन्नी इस्लाम के विभिन्न पंथों का अनुसरण करने वाले खाड़ी के देश प्रभावी तौर पर ईरान को घेरे हुए हैं। ईरान ने भी शायद तालिबान के भीतर विभिन्न तत्वों से तालमेल कर इन घेरने वाले प्रयासों को बेअसर करने का साधन बनाया है। ईरान के इस दोहरे खेल के बारे में पश्चिमी देशों का संदेह इसे अपने राष्ट्रीय हितों को बरकरार रखने के लिए राजनयिक व्यावहारिकता का श्रेय नहीं देता।

गौरतलब है कि ईरानी क्रांति और 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण ने इस क्षेत्र में ऐसी घटनाओं को जन्म दिया, जिससे पिछले 42 वर्षों में बहुत लोगों की जानें गईं और ऐसी अस्थिरता पैदा हुई। ईरान में क्रांति से शिया शक्ति का उदय हुआ, जबकि अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण ने वहां एक वैचारिक शून्यता उत्पन्न कर दी। अफगानिस्तान में शिया विचारधारा का अनुसरण केवल नौ प्रतिशत हजारा आबादी करती थी। फिर भी सोवियत संघ को अफगानिस्तान में ईरानी प्रभाव की संभावित वृद्धि का डर अधिक था।

बाद का युद्ध अमेरिका-सऊदी गठबंधन द्वारा सोवियत संघ के खिलाफ लड़ा गया, जिसमें पाकिस्तान प्रॉक्सी तौर पर शामिल था। सोवियत संघ के दक्षिण की ओर बढ़ने को लेकर अमेरिका चिंतित था और सऊदी अरब अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शिया विचारधारा के प्रभाव फैलाने की क्षमता को लेकर डरा हुआ था। समय के साथ सऊदी-पाकिस्तान सहयोग ने ईरान के पूर्वी हिस्से पर सुन्नी वैचारिक प्रभुत्व की स्थापना की।

ईरान लंबे समय से जो कुछ करने का प्रयास कर रहा है, वह आंशिक आउटरीच और जुड़ाव के माध्यम से अपने पूर्वी हिस्से पर सुन्नी प्रभुत्व को खत्म करना है। इसके लिए, अल कायदा से बात करना अभिशाप नहीं माना जा सकता और वास्तव में ईरान में सीमा पार जिहादी गतिविधियों को रोकने में मददगार हो सकता है। कुछ मात्रा में ईरानी हथियार और गोला-बारूद कथित तौर पर सीमा पार अफगानिस्तान तक पहुंचते हैं। अफगानिस्तान में तत्कालीन अमेरिकी मिशन को कमजोर करना भी कट्टर प्रतिद्वंद्वी सऊदी अरब के हितों के खिलाफ काम किया क्योंकि उनके हित आपस में जुड़े हुए थे। यह एक ओपेन सीक्रेट है कि कई तालिबान नेताओं के परिवार  ईरान में स्थित हैं। मुल्ला अख्तर मंसूर, जो तालिबान के सर्वोच्च कमांडर के रूप में मुल्ला उमर के उत्तराधिकारी थे, 21 मई 2016 को ईरान से पाकिस्तान वापस जाते समय अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए थे।

तालिबान के साथ ईरान के संबंधों का जिक्र करते हुए अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि ईरान के पानी का एक बड़ा हिस्सा अफगानिस्तान से बहता है और इसलिए एक मात्रा तक सहयोग बेहतर है। सूखा, जलवायु परिवर्तन और अधिक बांधों के निर्माण के कारण ईरान सूख रहा है। यही कारण है कि वह काबुल के शासकों या सीमावर्ती क्षेत्रों के प्रमुख शासकों के साथ तनावपूर्ण संबंध नहीं रख सकता।

ईरान और तालिबान दोनों ही इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव खत्म होने को पसंद करते हैं। वे अफगानिस्तान में या मध्य पूर्व में कहीं भी अमेरिका की लंबी उपस्थिति को इस्लामिक गणराज्य के क्रांतिकारी मूल्यों के लिए एक अभिशाप मानते थे। हालांकि, इसने नब्बे के दशक के अंत में तालिबान 1.0 के खिलाफ नाइन पार्टी एलायंस का समर्थन किया था, लेकिन इस साल 15 अगस्त को शुरू तेज घटनाक्रमों के बाद तालिबान 2.0 के साथ अधिक सहयोग का संकेत दे रहा था। पंजशीर घाटी में प्रतिरोध के कारण इसमें एक अस्थायी बाधा उत्पन्न हुई है; क्योंकि पंजशीर में पाकिस्तान की मौजूदगी और तालिबान को उसके समर्थन से ईरान खुश नहीं है।

इस्लामिक स्टेट के रूप में ईरान और तालिबान का एक साझा दुश्मन है – खुरासान (आईएस-के)। अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूहों से भरा है, लेकिन आईएस-के को छोड़कर किसी ने भी शिया बहुल ईरान से लड़ाई करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखाई है। वे अफगान क्षेत्र, मध्य एशिया या पाकिस्तान के भीतर अपना स्थान बना रहे हैं। यदि इन समूहों द्वारा अपनाए गए आक्रामक शिया विरोधी रुख की बात आती है तो तालिबान के भीतरी तत्वों के साथ ईरान के कार्यात्मक संबंध हमेशा ईरान के हित में होंगे।

ईरान शरणार्थियों की समस्या के प्रति भी सचेत है, जो अफगानिस्तान में किसी भी प्रकार के अत्याचार या आंतरिक संघर्ष की शुरुआत से सीमा पार से आएंगे। यह न तो ईरान की विशाल आर्थिक समस्याओं के लिए अनुकूल है और न ही उसकी सुरक्षा के लिए। इसलिए उनके प्रवाह को रोकना ईरान की प्राथमिकता होगी। इस दिशा में तालिबानी तत्वों के साथ कार्यात्मक संबंध बनाना भी एक तरीका हो सकता है।

सऊदी अरब को दोहा में तालिबान की कूटनीतिक बातचीत पसंद नहीं आई है, खासकर जब से कतर एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जा रहा है। सउदी जो सबसे ज्यादा नापसंद करते हैं, वह है वर्तमान में तालिबान-ईरानी संबंधों की प्रकृति। सउदी और ईरान के बीच वैचारिक और सांप्रदायिक प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए यह स्वाभाविक है। सऊदी अरब खुद को इस्लामी दुनिया का नेता मानता है, लेकिन यह भी जानता है कि मध्य पूर्व और अब अफगानिस्तान की भू-राजनीति पर ईरान की पकड़ काफी बढ़ गई है। इस्लामी नेतृत्व के मैदान में एक तीसरा और संभवतः चौथा देश भी प्रवेश कर रहा है; वे हैं तुर्की और पाकिस्तान। सउदी को एहसास है कि अमेरिका के इशारे पर उन्होंने अफगानिस्तान की वर्तमान परिस्थिति में लगभग कोई भूमिका नहीं निभाई है।

इस्लामी दुनिया के भीतर शक्ति का क्षमता प्रदर्शन और पहल की जरूरत है। यह खुशी की बात है कि ईरान और तुर्की की भूमिकाएं भी “वेट एंड वाच” की नीति के साथ काफी हद तक सौम्य रही हैं। प्रभाव के लिए बड़ा खेल बस शुरु होने को है और सउदी खुद को एक बार फिर प्रमुखता की स्थिति में ले जा सकते हैं; यूएस के प्रॉक्सी के रूप में खेलने का विकल्प अभी खुला है। कतर और सऊदी-यूएई गठबंधन के बीच मध्य पूर्व की प्रतिद्वंद्विता, इस्लामी दुनिया में तुर्की, पाकिस्तान और कुछ हद तक ईरान द्वारा खेले जा रहे प्रभाव के खेल अंततः अफगानिस्तान तक पहुंच सकते हैं। यह कैसे प्रकट होगा यह निर्धारित करना अभी मुश्किल है लेकिन यह विभिन्न गुटों या विभिन्न जातीय संबद्धताओं के समर्थन के रूप में दिखायी दे सकता है जिससे आंतरिक  संघर्ष हो सकता है। अफगानिस्तान में अभी तक संघर्ष का अंत नहीं हुआ है; इस्लामी दुनिया की आंतरिक गतिविधियां यहां अपना प्रभाव डाल सकती हैं।

इसमें शामिल भारतीय हितों को परखे बिना ईरान पर किया जा रहा विश्लेषण कभी भी पूरा नहीं हो सकता। दो सवालों के जवाब जरूरी हैं। पहला, क्या अमेरिका-ईरान के बीच मेलजोल की गुंजाइश है जो इस क्षेत्र की भू-राजनीति को काफी हद तक उलट सकता है? दूसरा, क्या ईरान के साथ घनिष्ठ संबंधों के माध्यम से भारत के हितों को साधा जा सकता है?

भारत और अमेरिका दोनों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि एक तरफ अफगानिस्तान और पाकिस्तान और दूसरी तरफ ईरान के कारण मध्य एशिया उनके लिए दुर्गम बना हुआ है। अमेरिका पाकिस्तान तक पहुंच सकता है लेकिन अफगानिस्तान तक नहीं। भारत ईरान तक पहुंच सकता है, लेकिन बुनियादी ढांचा एक समस्या है, क्योंकि मौजूदा परिस्थितियों में पश्चिम अफगानिस्तान के माध्यम से वहां पहुंच संभव नहीं है।

अमेरिका, उसके सहयोगी और भारत ईरान के माध्यम से मध्य एशिया तक पहुंच बनाकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों को अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण बना सकते हैं। हालांकि, अमेरिका-ईरान संबंध अभी भी टूटे हुए हैं, जहां अमेरिकी दृष्टिकोण वास्तविकता से अधिक भावनाओं पर आधारित है। 1979-80 में ईरान द्वारा अमेरिकी राजनयिकों को बंधक बनाने की घटना, 1980 में असफल रेस्क्यू के प्रयास में कई अमेरिकी सैनिकों की मौत और उसी वर्ष राष्ट्रपति कार्टर की हार ने अमेरिकी मानस को गहरा आघात पहुँचाया। फिर इजराइल के साथ ईरान की गहरी दुश्मनी और सऊदी अरब के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता का मुद्दा भी है; किसी भी रिश्ते को ठीक करने के पूर्व बहुत सारी नकारात्मकताओं पर भी विचार किया जा सकता है। हालाँकि, भारत और अमेरिका के बीच उभरती रणनीतिक साझेदारी को देखते हुए, कहा जा सकता है कि स्वस्थ भारत-ईरान संबंधों पर अमेरिका को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। चाबहार बंदरगाह और अन्य बुनियादी ढांचे के विकास में भारत की भागीदारी को अमेरिका द्वारा पुरजोर समर्थन दिया जाना चाहिए ताकि मध्य एशिया तक पहुंचने के लिए विकल्प तैयार किया जा सके और पाकिस्तान के भू-रणनीतिक एडवांटेज को कम किया जा सके।

क्या भारत ऐसे सहयोग की दिशा में काम कर सकता है? ईरान के माध्यम से प्रवेश उसे अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारे (INSTC) तक भी पहुँच प्रदान करेगा। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 सितंबर 2021 को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में अपने संबोधन के दौरान भारत द्वारा विकसित ईरानी बंदरगाह चाबहार के लिए जमीन तैयार की। चाबहार बंदरगाह का विकास भारत के लिए अफगानिस्तान में पहुंचने का एक वैकल्पिक मार्ग बनाने की पहल का हिस्सा है क्योंकि पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से परिवहन में बाधा डालना शुरू कर दिया था।

अब जबकि ईरान एससीओ का एक पूर्णकालिक सदस्य है, एससीओ सहयोग के लिए एक महत्वपूर्ण और उपयोगी साधन बन गया है। भारतीय विदेश मंत्रालय मध्य एशिया, एससीओ और अफगानिस्तान पर अपना ध्यान केंद्रित करने में जितना समय खर्च कर रहा है, उससे पता चलता है कि भारत इस क्षेत्र को कितना महत्व देता है, जिस तक पहुंच केवल ईरान के माध्यम से हो सकती है।

तेजी से बदलती परिस्थितियों और मध्य पूर्व, मध्य एशिया और इंडो-पैसिफिक के बीच अपने सुरक्षा हितों को संतुलित करने के लिए अमेरिका की आवश्यकता के बीच, यही समय है कि भारत, अमेरिका और ईरान के बीच एक हित आधारित संबंध बनाने पर काम करे। यह एक कठिन कार्य है लेकिन इसकी पहुंच क्षमता और वर्तमान स्थिति को देखते हुए इसे हासिल करना असंभव नहीं दिखता।

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लेखक
लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय सेना के श्रीनगर कोर के पूर्व कमांडर रहे हैं। वह रेडिकल इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमने वाले मुद्दों पर विशेष जोर देने के साथ एशिया और मध्य पूर्व में अंतर-राष्ट्रीय और आंतरिक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वह कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और रणनीतिक मामलों और नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमने वाले विविध विषयों पर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में बड़े पैमाने पर बोलते हैं।

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