• 22 December, 2024
Foreign Affairs, Geopolitics & National Security
MENU

आईपीसीसी रिपोर्ट विश्व को जलवायु आपदा की याद दिलाती है

डा. धनश्री जयराम
बुध, 18 अगस्त 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

आईपीसीसी की रिपोर्ट विश्व को जलवायु आपदा की  याद दिलाती है

डॉ. धनश्री जयराम

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी आकलन रिपोर्ट में कार्यकारी समूह ने  भौतिक विज्ञान के आधार पर जलवायु परिवर्तन की अद्भुत स्थिति प्रस्तुत की, जिसमें संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का योगदान भी शामिल था। इसे अनेक लोगों ने “कोड रेड” का नाम दिया। रिपोर्ट में कुछ चेतावनियां दी गई जिन्हें जलवायु वैज्ञानिक दशकों से उजागर कर रहे हैं। हालांकि अब बहुत अधिक आत्मविश्वास के साथ ऐसा कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को जलवायु परिवर्तन में मानवीय गतिविधियों के योगदान के संबंध में अब और अधिक प्रशिक्षित करने की आवश्यकता नहीं है, तथापि अब यह  और अधिक  महत्वपूर्ण हो गया है , संभवत उन लोगों के लाभ के लिए जो अभी भी ‘जलवायु खंडन’ या ‘जलवायु शंका’ में  जीवन व्यतीत कर रहे  हैं।

रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो हमें जलवायु की वर्तमान स्थिति का एक और अधिक सूक्ष्म चित्र प्रदान करता है। पिछले वर्षों में कितना परिवर्तन हुआ, और यदि जलवायु परिवर्तन के संबंध में तत्काल  आधार पर कार्रवाई नहीं की जाती तो मानव जाति का भविष्य कैसा होगा ? जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की चिंता तक सीमित नहीं है। अब लाखों लोगों के जीवन पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और तापमान वृद्धि के प्रभाव के कारण बदलते हुए परिदृश्यों के अनुसार इसके और भी बदतर होने की उम्मीद है। भू-राजनीति और सुरक्षा के संबंध में इस रिपोर्ट का क्या अर्थ है? भारत के लिए इसका क्या अर्थ है?  जैसे  अनेक प्रश्न हैं; और यद्यपि अधिकांश के उत्तर सर्वविदित हैं, फिर भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय जलवायु कार्रवाई में लगातार विलंब कर रहा है ।

आईपीसीसी रिपोर्ट में अपरिहार्यको पुन सम्मिलित किया

रिपोर्ट के मुख्य अंश ऐसे कई मामलों पर प्रकाश डालते हैं जिन पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को आपसी सहयोग  से कार्य करना है। विज्ञान  अधिक प्रगति के साथ, बाढ़, सूखा, लू, जंगल की आग आदि के साथ-साथ बढ़ता हुआ तापमान (और सम्बंधित  प्रभाव) तथा जलवायु की चरम अवस्थाओ में अधिक मजबूत संबंध स्थापित करने में सक्षम रहा है। यह एक प्रमुख बदलाव है क्योंकि पहले केवल बार-बार की बढ़त और तीव्रता पर  ही मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया जाता था। इसके अलावा, रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अगर अगले कुछ वर्षों में त्वरित गति से जलवायु पर कार्रवाई नहीं होती है, तो दुनिया 2040 से बहुत पहले 1.5 डिग्री सेल्सियस (तापमान वृद्धि) तक पहुंच जाएगी।

कुछ परिवर्तन अत्यधिक अपरिवर्तनीय (और शायद अपरिहार्य भी) माने जा सकते हैं जैसे कि समुद्र के जल स्तर में वृद्धि, महासागरीय अम्लीकरण, कम होते हुए ग्लेशियर, ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में बर्फ की चट्टानों का टूटना, आर्कटिक में पर्माफ्रॉस्ट पिघलना आदि। सबसे खराब परिदृश्य में अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं में बढ़ोत्तरी हो सकती है, जिससे वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति  और अधिक संवेदनशील हो जायेंगे।

ब्रिटिश कोलंबिया में बढ़ता रिकॉर्ड तापमान (49 डिग्री सेल्सियस से अधिक), यूरोप और चीन में बाढ़ और ग्रीस में जंगल की आग वर्तमान जलवायु परिवर्तन यह चरम संकेत हैं कि मानव जाति का भविष्य कैसा होगा। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि कई देशों द्वारा निर्धारित बहुप्रचारित नेट- ज़ीरो लक्ष्य (लगभग 2050)  वांछित परिणाम दे पाने में सक्षम नहीं हैं। विशेष रूप से तब जब समुद्र और जंगल (जिनसे इन देशों को लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करने की उम्मीद है) अत्यधिक दबाव में हैं। अतः सभी प्रणालियों में बड़े पैमाने पर बदलाव ही वास्तविक कार्यवाही  होगी।

आईपीसीसी रिपोर्ट मानव सुरक्षा के लिए एक रेड कोड है

जैसे-जैसे जलवायु में बुरी तरह परिवर्तन होगा  इसका प्रभाव आजीविका, बुनियादी ढांचे, खाद्य और जल सुरक्षा, आपूर्ति श्रृंखला, मानव स्वास्थ्य आदि पर बहुत अधिक पड़ेगा। यह प्रभाव समाज में हाशिए पर रहने वाले वर्गों पर दूसरों की तुलना में अधिक होगा। वायु प्रदूषण की अतिरिक्त समस्या के प्रति दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्र काफी संवेदनशील हैं। भारत सहित इस क्षेत्र के अन्य देशों में अधिक वर्षा का अप्रत्याशित पैटर्न (जैसे लगातार तीव्र बारिश ),  “अत्यधिक गर्मी पड़ना” और  द्वीपों के प्रभावित होने से शहरी क्षेत्रों में भारी वर्षा (शहर आमतौर पर अधिक गर्म होते है) आदि दिखायी देगी।

लू (हीट वेव) पहले से ही कार्यबल की उत्पादकता में बाधा डालकर आर्थिक विकास को प्रभावित कर रही हैं। इस क्षेत्र में कार्यबल बड़ी संख्या में अनौपचारिक क्षेत्रों जैसे निर्माण और अन्य बाह्य उन्मुख उद्योगों द्वारा नियोजित हैं। एक अध्ययन के अनुसार, “यदि दैनिक औसत तापमान में एक डिग्री की वृद्धि होती है, तो भारत में एक कारखाने का वार्षिक उत्पादन 2.1%  कम हो जाएगा”। कृषि क्षेत्र, जो पहले से ही काफी संकट में है, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से और  दक्षिण-पश्चिम मानसून  में वृद्धि एवं अन्य परिवर्तनों के  कारण और अधिक प्रभावित होगा जैसा कि आईपीसीसी रिपोर्ट में संकेत दिया गया है। कृषक समुदाय जो मानसून पर अत्यधिक निर्भर हैं। उन्हें अपने कुछ वर्तमान कार्यो का पुन निरधारण  करना होगा जो इस  वर्षा व्यवस्था के अनुकूल हो।

जैसे-जैसे ग्रामीण और शहरी चुनौतियां बढ़ेंगी, शासन तंत्र को, विकृत संसाधन आधार (भोजन, पानी, ऊर्जा, आदि), मौसम के चरम पर जाने की घटनाओं, बिगड़ती आजीविका असुरक्षाओं के कारण बढ़ते तनाव (जनसांख्यिकीय, पर्यावरण, आदि) का समाधान खोजना होगा। (जो प्रवासी प्रणाली को प्रभावित करते हैं और यहां तक कि शारीरिक, स्वास्थ्य, आदि जैसे अन्य प्रकार की असुरक्षा की भावना का सृजन करती है) विशेष रूप से, हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र और तटीय क्षेत्रों पर  दबाव और अधिक  बढ़ेगा,  क्योंकि ग्लेशियरों में कमी, समुद्र  स्तर में वृद्धि, उष्णकटिबंधीय चक्रवातों में तेज़ी आयेगी। ये परिवर्तन प्रभावी रूप से भारत में लाखों लोगों  तथा दक्षिण एशिया क्षेत्र में जीवन शैली, आर्थिक, संसाधन, शारीरिक रूप से, स्वास्थ्य और  उनकी सामाजिक सुरक्षा को अत्यधिक प्रभावित करेंगे ।,

आईपीसीसी रिपोर्ट के (भू) राजनीतिक प्रभाव

आईपीसीसी की रिपोर्ट से  पूर्व के कुछ  भू-राजनीतिक दोषों (विशेष रूप से उत्तर-दक्षिण) के पुनः दोहराये जाने की संभावना है। कई लोगों ने इसमे मूलतः औद्योगिक देशों की तुलना में विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव असामान्य है। जबकि यह जलवायु परिवर्तन में बहुत कम योगदान देते हैं। इस असमानता को महत्व देना है परन्तु कार्बन स्पेस जो औद्योगिक देशों द्वारा असामान्य रूप से किया जाता है, इससे विकासशील देशों को CO2 उत्सर्जित करने का बहुत कम मौका मिलता है।

भारत जैसे विकासशील देशों के पास इस जलवायु एवं-भू-राजनीतिक के संदर्भ में खोने के लिए और भी बहुत कुछ है। भारत पर संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन, दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य देशों के अनुरूप – नेट- जीरो उत्सर्जन लक्ष्य अपनाने का दबाव बढ़ेगा। साथ ही, जलवायु वित्त पर औद्योगिक देशों के अधूरे वादे विकासशील देशों की जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूल बनाने की क्षमता में बाधा डालेंगे। जैसा कि भविष्य में भारत जैसे देशों द्वारा उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन का दबाव बढ़ाया जाएगा। उन पर कार्बन डाइऑक्साइड, एरोसोल और मीथेन सहित ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन में  कमी करने की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी।

जलवायु कार्रवाई का भविष्य?

वर्तमान में भारत तीसरा सबसे बड़ा जीएचजी उत्सर्जक है। आने वाले वर्षों में इसके उत्सर्जन में और वृद्धि होने की उम्मीद है। देश वर्तमान में इस स्तर पर आर्थिक विकास से समझौता नहीं कर सकता। अक्षय ऊर्जा में अपने संवर्धित निवेश से परे, जलवायु नीति संस्थानों की स्थापना और कई जलवायु-अनुकूल नीतियों को शुरू करने के लिए भारत को जलवायु कार्रवाई पर एक स्पष्ट नीति की आवश्यकता है जो सभी क्षेत्रों, विकास नीतियों, संस्थानों में व्याप्त हो। इस प्रक्रिया को जलवायु न्याय के सिद्धांतों के साथ जोड़कर हरित संक्रमण पर पूर तरह से समाप्त करने की आवश्यकता है , जिससे एक न्याय संगत  परिवर्तन सुनिश्चित हो सके।

1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य और पेरिस समझौते के अन्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दुनिया को एक साथ आना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि औद्योगिक देशों को उत्सर्जन में भारी कमी लाने और विकासशील और सबसे कम विकसित देशों को जलवायु वित्त प्रदान करने के लिए अपने प्रयासों को तेज करना होगा।

कोविड-19 महामारी से दुनिया ने यह सबक लिया कि इस तरह के संकट अप्रत्याशित और विनाशकारी तरीकों से पृथ्वी पर मानव जीवन के हर पहलू को पंगु बना सकते हैं। जलवायु परिवर्तन एक प्रणालीगत मुद्दा है और किसी भी समाधान के लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों और क्षमताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। आईपीसीसी रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन जैसी विशाल चुनौती से निपटने के लिए बहुपक्षीय एजेंडा को मजबूत करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।

*********


लेखक
डा. धनश्री जयराम कर्नाटक के मणिपाल उच्च शिक्षा एकेडमी के भू-राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं और जलवायु अध्ययन केंद्र में सह-समन्वयक हैं। वह अर्थ सिस्टम गवर्नेंस में रिसर्च फेलो और जलवायु सुरक्षा विशेषज्ञ नेटवर्क की सदस्य भी हैं। उन्होंने एमएएचई से भू-राजनीति और अंतरराष्टीय संबंधों में पीएचडी की है। उन्होंने 2014-15 के दौरान लीडेन यूनिवर्सिटी, नीदरलैंड्स में विजिटिंग फेलोशिप (इरास्मस मुंडस-शॉर्ट-टर्म पीएचडी) और 2018-19 के दौरान स्विस गवर्नमेंट एक्सीलेंस स्कॉलरशिप के तहत स्विट्जरलैंड के लॉजेन विश्वविद्यालय में पोस्टडॉक्टरल फेलोशिप हासिल की। वह "ब्रेकिंग आउट ऑफ द ग्रीन हाउस : इंडियन लीडरशिप इन टाइम्स ऑफ एनवायरनमेंटल चेंज" (2012) और "क्लाइमेट डिप्लोमेसी एंड इमर्जिंग इकोनॉमीज : इंडिया इज ए केस स्टडी" (2021) की लेखिका हैं।

अस्वीकरण

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और चाणक्य फोरम के विचारों को नहीं दर्शाते हैं। इस लेख में दी गई सभी जानकारी के लिए केवल लेखक जिम्मेदार हैं, जिसमें समयबद्धता, पूर्णता, सटीकता, उपयुक्तता या उसमें संदर्भित जानकारी की वैधता शामिल है। www.chanakyaforum.com इसके लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है।


चाणक्य फोरम आपके लिए प्रस्तुत है। हमारे चैनल से जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें (@ChanakyaForum) और नई सूचनाओं और लेखों से अपडेट रहें।

जरूरी

हम आपको दुनिया भर से बेहतरीन लेख और अपडेट मुहैया कराने के लिए चौबीस घंटे काम करते हैं। आप निर्बाध पढ़ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरी टीम अथक प्रयास करती है। लेकिन इन सब पर पैसा खर्च होता है। कृपया हमारा समर्थन करें ताकि हम वही करते रहें जो हम सबसे अच्छा करते हैं। पढ़ने का आनंद लें

सहयोग करें
Or
9289230333
Or

POST COMMENTS (0)

Leave a Comment