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हिमालयन ब्लंडर 2020 : इस बार चीन

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)
शनि, 14 अगस्त 2021   |   8 मिनट में पढ़ें

लद्दाख में चीन-भारत गतिरोध से संबंधित रणनीतिक घटनाओं के एक साल बाद संभवत: उन अनछुए पहलुओं का जायजा लेने और उनका विष्लेषण करने का यह सही समय है। इनमें से निश्चित तौर पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर चीन ने एक ऐसी कार्रवाई का फैसला क्यों किया, जिसे वह जानता था कि उसका उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। या वह यह मान रहा था कि उसका ही नियंत्रण था। तो क्या इसने हाल के दिनों में अपनी सबसे संगीन विदेश नीति और रणनीतिक गलती की और क्या वास्तव में उसे मुंह की खानी पड़ी। यह एक अनुमान है और जांच के लायक है, क्योंकि चीन की व्यापक शक्ति प्रचार के इर्द-गिर्द दुनिया शायद ही कभी इसकी गिरावट को देखती है। वह यह कि तानाशाही व्यवस्था में दिखावा ज्यादा होता है। शी जिनपिंग के हालिया हाव-भाव को देखते हुए यह और भी दिलचस्प है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन को एक सच्चे, बहुआयामी और व्यापक राष्ट्र के तौर पर प्रस्तुत करने के लिए क्षमता में सुधार पर जोर दिया गया है। शी ने चीन को बदनाम करने वाली ‘भेड़िया योद्धा कूटनीति’ को भी तवज्जो नहीं दी। अजीब लगता है कि यह एक ऐसे राष्ट्र से सुनने को मिल रहा है जो पिछले ३० वर्षों से पेशेवर संचार रणनीति को सबसे ज्यादा तवज्जो देने वाले देश के तौर पर देखा जाता है। यह सर्वविदित है कि चीन ने 1993 में ‘सूचनायुक्त परिस्थितियों के तहत युद्ध’ को एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में अपनाया। दस साल बाद 2003 में यही सिद्धांत तीन युद्ध रणनीति बन गया; साइबर, मीडिया और कानूनी लड़ाई के साथ जवाबी कार्रवाई और सीमित दबाव बनाने के लिए हतोत्साहित करने वाली एक मजबूत पारंपरिक सेना को भी तैयार रखा।

जाहिर है हाल के वर्षों में जिस तरह से चीन की छवि उभरी है, उससे शी जिनपिंग असंतुष्ट हैं। इसके कारण उनकी छवि पर भी धब्बा लगा है। यह नौबत आने से पहले, अंतरराष्ट्रीय स्थिति से संबंधित महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के निर्धारित समय से पूरे होने के करीब पहुंचने पर उनका पूरा ध्यान चीन की शक्ति, प्रभाव, अचूकता और वर्चस्व की वाहवाही करने पर ही रहता था। हालांकि चीन भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों पर प्रभाव बनाने की दिशा में सभी प्रयास कर रहा था, लेकिन वह भारत के शीर्ष नेतृत्व के साथ भी सौहार्द बनाकर चल रहा था। यह उसकी, भारत और अमेरिका के संभावित मजबूत भागीदारी को बेअसर करने या कम से कम असमंजस की स्थिति में डालने की मंशा को दर्शाता है। इन हथकंडों के अलग-अलग उद्देश्य थे जिनके बारे में भारत सजग रहा और क्षेत्र में प्रभाव बनाए रखने के लिए जवाबी उपाय करता रहा। इस स्तर पर दो अवधारणाएं अधिक हैं। पहला, मैंने अपने लेखन में पिछले साल बार-बार दोहराया था, कि चीन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत को एक सौम्य और प्रतिक्रियाशील राज्य से एक अधिक रणनीतिक रूप से आश्वस्त और सक्रिय राज्य में परिवर्तित होते देखा है जो उसे अपने हितों के लिए स्वीकार नहीं है। वर्ष 2016 से 2019 के बीच डोकलाम, ट्रांस-एलओसी सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयर स्ट्राइक, कश्मीर में ऑपरेशन ऑल आउट और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से इस धारणा को बल मिला है कि समय बीतने के साथ भारत का आत्मविश्वास और अधिक बढ़ेगा। यह सीमा विवाद से कहीं ज्यादा चीन के समग्र हितों के लिए खतरनाक होगा। पारंपरिक जवाबी रणनीति के तहत भारत वास्तव में अमेरिका को उतनी जगह प्रदान कर सकता है, जिसकी तलाश उन्हें चीन को भूमि और समुद्री दोनों क्षेत्रों में मोर्चे पर घेरने के लिए चाहिए। भू-रणनीतिक तौर पर हिंद महासागर के ताज के रूप में एक प्रायद्वीपीय व्यवस्था के साथ भारत की प्रमुख स्थिति इसे उत्तरी हिंद महासागर के एक महत्वपूर्ण हिस्से के जरिए संचार की समुद्री लाइनों (SLsOC)पर हावी रहने का लाभ देता है। चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) में शामिल होने से भारत का इनकार करना भी चीन को असहज करने का एक प्रमुख कारण रहा।

उपरोक्त में से अधिकांश पिछले साल के विश्लेषणों की पुनरावृत्ति है। जब वुहान वायरस का सवाल समाचारों को इतना गंभीर नहीं बना रहा था कि इसे रणनीतिक केंद्र बनाया जा सके। विशेष रूप से यूरोप महामारी की पहली लहर की चरम सीमा पर राहत प्रयासों के लिए चीन का जय गान कर रहा था। जब पीएलए ने प्रशिक्षण कर रहे सैनिकों के एक बड़े दल को लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भेजने को निर्णय लिया तब भारत भी पहली लहर को झेल रहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि समय कोई संयोग नहीं है और एक साथ हुए घटनाक्रम में उठाए गए कदमों के पर्याप्त साक्ष्य हैं। एलएसी के पार आकर दबाव बनाने से पहले वायरस के प्रसार से पर्याप्त प्रभाव की प्रतीक्षा की और फसाद करने के लिए ऐसे हथियार साथ लाए जिससे यह दिखे कि वह लड़ाई के लिए आए ही नहीं थे।

आक्रामकता में शामिल राष्ट्र जब किसी भी योजना को गहनता से बनाते हैं और संचालन करते हैं तो हमेशा कुछ उद्देश्य निहित होते हैं। उद्देश्य के बिना कोई मिशन एक बेहुनर अभ्यास बन कर जाता है और गलत रणनीति हो सकती है। चीन का राजनीतिक उद्देश्य अभी भी स्पष्ट नहीं है लेकिन दिमाग पर थोड़ा अधिक जोर डालने से अब कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। भारत के उत्थान और प्रगतिशील परिवर्तन की धारणा से प्रभावित होकर चीन का उद्देश्य भारत के आत्मविश्वास को कमजोर करना, आर्थिक क्षेत्र में इसे दो साल पीछे धकेलकर विकसित होती युद्ध क्षमता को कम करना और इसे भू-रणनीति में एक सर्वोत्त ढाल बनने से रोकना हो सकता है- यूएस लेक्सिकॉन का भारतीय भाग, इंडो-पैसिफिक, जो अभी तक चीन की कमजोरी है।

इस राजनीतिक-रणनीतिक लक्ष्य को सैन्य रणनीति बनाना एक चुनौती थी जिसे पूरा करने में राजनैतिक और सैन्य पदाधिकारी विफल रहे। यही चीन की 2020 की गलती है। पीएलए को यकीन नहीं था कि उसका उद्देश्य केवल ‘वॉक इन’ ऑपरेशन से पूरा हो सकता है। आखिरकार, भारतीय सेना को दस साल या उससे अधिक समय में हुई कार्रवाइयों के कारण इसकी आदत हो गई थी। संभवतः इसने वही किया जो ऐसी आक्रामकता के खिलाफ सभी राष्ट्र करते हैं। इसने अपने विकल्पों को युद्ध के रूप में अभ्यास किया। इनमें उत्तरी सीमा पर बड़े पैमाने पर सीमा युद्ध बीआरआई की प्रमुख परियोजना, सीपीईसी के निकट होने के कारण प्रशंसनीय रहा। एक निश्चित समय सीमा में सैन्य जीत की गारंटी नहीं दी जा सकती थी और कम से कम इस स्तर पर वह क्षेत्र कुछ ऐसा था जिसे चीन पसंद नहीं करता था। कुछ अनसुलझे सीमा विवादों को बनाए रखना कई बार रणनीतिक रूप से अधिक फायदेमंद होता है। हो सकता है कि एक संभावित सैन्य रणनीति तैयार करने के लिए चीनी नेतृत्व ने राजनीतिक-रणनीतिक लक्ष्य को एक व्यावहारिक सैन्य लक्ष्य में बदलने के लिए कुछ विकल्पों पर युद्धाभ्यास किया हो। अगर हम यह मान लें कि चीन भी भारत और इसकी घनी आबादी के खिलाफ जैविक युद्ध करने के लिए तैयार था और उस पर उच्च स्तरीय निर्णय ले चुका था, तब पीएलए को समग्र लक्ष्य हासिल करने के लिए केवल उचित दबाव बनाने की जरूरत थी। चीन को शायद यह विश्वास था कि युद्ध के मुहाने पर पहुंचने का दबाव बनाने से भले ही वह भारत के साथ सद्भाव खो देगा लेकिन भारत व्यापार संबंधों को जारी रखेगा। चीन ने यही सही माना कि अगर उसने अपनी सैन्य रणनीति को सीमित दबाव के साथ आगे बढ़ाया तो वह भारत को चेतावनी देने में सफल हो सकता था। इसके अलावा, भारत लामबंदी में होने वाले खर्चों के लिए मजबूर करेगा। यह सब ऐसे समय में हो रहा था जब भारत के लिए आमने-सामने डटे रह कर एलएसी के एक अन्य नियंत्रण रेखा (एलओसी) में वास्तविक रूप से परिवर्तित होने का खर्च वहन करना मुश्किल था। यदि भारत अमेरिका और इसके अन्य सहयोगियों के साथ रणनीतिक साझेदारी जारी रखता है तो यह और अधिक नकारात्मक स्थिति की एक झलक मात्र थी। जब बात हिमालय की चोटियों में युद्ध की हो तो इसका इरादा भारत को यह अहसास दिलाना भी था कि पीएलए और पाकिस्तानी सेना की संयुक्त ताकत के खिलाफ वह बिल्कुल अकेला है।

उपरोक्त पूरा अनुमान इस धारणा पर टिका है कि कोविड महामारी मुख्य रूप से चीन के विरोधियों, अमेरिका, भारत और यूरोप को ध्यान में रख कर तैयार की गई थी। सैन्य दबाव की योजना केवल भारत के खिलाफ थी क्योंकि यह उसकी क्षमता के दायरे में थी। इसे इस तरह से तैयार किया गया था कि महामारी की स्थिति में यह केवल एक सीमित गतिरोध हो जिससे कूटनीतिक या आर्थिक संबंध न टूटें। फिर भी, बेहतरीन योजनाएं लागू होने के समय ही अनिश्चितता का शिकार हो जाती हैं। यह एक अलग क्षेत्र के बड़े मोर्चे पर महज एक और डोकलाम हो सकता था, लेकिन फिर गलवान की घटना हुई। यहीं से अनुमान विश्लेषण और मूल्यांकन के दायरे में आ जाता है। पीएलए ने गलवान में 15/16 जून 2020 की रात जो किया उसका उसके पास कोई कारण नहीं था। पहले से चल रहे गतिरोध को थोड़ा और घातक बनाने के उद्देश्य से संभवत: जानबूझकर उकसाया गया कदम था जिससे इरादे की गंभीरता का संकेत दे सकें। यह जो कुछ भी था, बहुत गलत हुआ। पीएलए स्थिति के हाथ से बाहर जाने और दोनों पक्षों के सैनिकों की मौत का कारण बनने के लिए तैैयार नहीं था। इस सीमा को अक्सर परिपक्व देशों के लिए आदर के रूप में संदर्भित किया जाता था। वर्ष 1975 के बाद से यहां न गोली चली और न ही कोई हताहत हुआ था। यह संभवत: आदेशों, धारणा, खराब प्रशिक्षण और उससे भी ज्यादा खराब क्रियान्वयन का एक विभत्स मिश्रण था। यह सभी पीएलए के लक्षण हैं। अच्छा यही होता कि सभी अतिक्रमण को तुरंत खाली कर दिया जाता, लेकिन नरम दिखना चीन के उद्देश्यों के विपरीत होगा। संभव है कि न उलझने का सख्त आदेश रहा हो लेकिन देपसांग, गोगरा, हॉट स्प्रिंग्स और फिंगर्स कॉम्प्लेक्स में रुख को सख्त करना स्वाभाविक था। यह पीएलए की अक्षमता का एक पैमाना ही है कि वह आस-पास देखने और जगह का मुआयना करने में विफल रहा। भारत के पास कैलाश क्षेत्र में दुंगती और डेमचोक की ओर जवाबी कार्रवाई का आधार था। वहीं, पीएलए को इन चोटियों पर कब्जा करने के लिए या तो अतिरिक्त सैनिकों को लाना पड़ता या मोल्दो से छोटी टुकड़ियों में लोगों को तैनात करना पड़ता। अतिरिक्त सैनिक आने से संभवत: स्थिति और गंभीर हो सकती थी। पीएलए ने या तो चुशुल-मोल्डो चोटियों को नजरअंदाज कर दिया या यह मान लिया कि भारतीय सेना में इस स्पष्ट अवसर को भुनाने की भावना, पहल या साहस नहीं हैै। अगस्त 2020 के मध्य तक भारतीय सेना ने काफी तेजी से आर्मर्ड और इन्फैंट्री कॉम्बैट व्हीकल्स (ICV)से सुसज्जित होकर अतिरिक्त तैयारी कर ली थी। अतिरिक्त सैनिकों के पहुंचने पर बढ़े विश्वास के साथ एलएसी से भारत की ओर सभी महत्वपूर्ण चोटियाें पर 29-30 अगस्त 2020 की रात को ही कब्जा कर लिया गया था। यह सच है कि पीएलए ने काफी हताशा और निराशा से इस झटके का जवाब दिया, लेकिन शत्रुता को बढ़ाया नहीं। यह पीएलए द्वारा किए जा रहे आपरेशनों की प्रवृत्ति को दर्शाता है। चोटियों पर भारतीय कब्जा उकसाने का पर्याप्त कारण थे। चीनियों ने जवाब दिया लेकिन भारतीय सैनिकों ने अपनी जगह पर कब्जा नहीं छोड़ा।

चुशुल ऑपरेशन का अनुमान लगाने में विफलता पीएलए के लिए नैतिक रूप से निम्न स्तर था। हालांकि, हमारे लिए इस तथ्य को जानना अच्छा प्रोजेक्शन था कि पीएलए एक अनुभवी और अच्छी तरह से प्रशिक्षित भारतीय सेना का सामना कर रहा था। इसने पीएलए नेतृत्व के मन में और संदेह पैदा कर दिया। साथ ही वैश्विक बदलाव की ओर बढ़ रही दुनिया में संपर्क और समीकरण भी तेजी से बदल रहे हैं। 1990-91 (शीत युद्ध के बाद) की अनिश्चितता से समानताएं ध्यान देने योग्य हैं। भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपनी आक्रामक और रक्षात्मक कार्यों के संतुलन के साथ बयानबाजी को छोड़ अपने लिए उच्च ऊंचाई की रणनीति यानी हाई एल्टीट्यूड स्ट्रेटेजी विकसित करे। वैश्विक और क्षेत्रीय व्यवस्था के बदलाव में प्रक्रिया और समय लगेगा। जब तक कुछ और निर्णायक स्थित नहीं बनती है तब तक चीनियों के बने रहने की संभावना है। सैन्य स्तर पर और राजनीतिक स्तर पर भी कई बैठकों और वार्ताओं का दौर चलेगा। जो बाइडेन जिस गति से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीजों को आगे बढ़ाना चाहते हैं, उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। भारत के खिलाफ लद्दाख में अपनी रणनीति और अंजाम के बारे में सोचे बिना, चीन ने वास्तव में भारत को अपने दीर्घकालिक खतरों को बेहतर ढंग से समझने में मदद की है। इससे साझेदारी बढ़ाने में तेजी आई है और चतुर्भुज राष्ट्रों के अस्तित्व की मौजूदगी को स्पष्ट किया है।

आखिरकार, यह संभव है कि लद्दाख में हुए खींचतान से चीन को अपनी ताकत और कमजोरियों की आत्म-धारणा की अधिक वास्तविकता दिखाई हो और दुनिया को शायद यह विचार करने के लिए अधिक समय दिया है कि यह भविष्य के आधिपत्य से कैसे निपटेंगे। चीनी दबाव के प्रयासों का सही तरीके से विरोध करते हुए भारत ने बयानबाजी या रवैये में अड़ियल रुख नहीं अपनाया। भारत ने वास्तव में यह दिखाया है कि परिपक्व देशों को जबरदस्ती या दबाव से कैसे निपटना चाहिए। लेकिन यह इस खेल का अंत नहीं है। सांठ-गांठ वाले खतरे के माहौल में भविष्य के गतिरोध से निपटने की इसकी तैयारी दुनिया के लिए लाभकारी सीख होगी। महामारी हो या न हो, यह वास्तव में आराम करने का समय नहीं है।


लेखक
लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय सेना के श्रीनगर कोर के पूर्व कमांडर रहे हैं। वह रेडिकल इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमने वाले मुद्दों पर विशेष जोर देने के साथ एशिया और मध्य पूर्व में अंतर-राष्ट्रीय और आंतरिक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वह कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और रणनीतिक मामलों और नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमने वाले विविध विषयों पर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में बड़े पैमाने पर बोलते हैं।

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POST COMMENTS (1)

rajendra singh chauhan

अगस्त 16, 2021
चीन का इतिहास रहा है दुनिया व्यस्त हो तभी कुछ करता है और कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना साधता है

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