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अफगानिस्तान : अभी प्रतीक्षा करो!

डॉ शेषाद्री चारी
बुध, 25 अगस्त 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

अफगानिस्तान : अभी  प्रतीक्षा करो!

डॉ शेषाद्रि चरी

इतिहास को स्वयं को दोहराने की बुरी आदत है। चार या पांच शताब्दियों से भी अधिक समय से अफगानिस्तान अनेक देशों द्वारा उनकी महाशक्ति की स्थिति का परीक्षण  करने का सबसे पसंदीदा स्थान रहा है।  चारो ओर से घिरा अफगानिस्तान एक मजबूत शक्ति रहा है।अफगानिस्तान किसी क्षेत्रीय या वैश्विक समूह का हिस्सा  नही  था। उनके देश की एक स्वीकार्य राष्ट्रीय पहचान भी नहीं है। फिर भी अंग्रेजों, पूर्व सोवियत संघ और अमेरिका ने जब अफगान  की धरती पर अपने वर्चस्व का झंडा फहराने की कोशिश की तो इन्होने सब को धूल चटा दी।

अफगानिस्तान से अमेरिका की निर्धारित समय से पूर्व जल्दबाजी  में की गयी  वापसी कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है। अमेरिका ने तालिबान लडाकुओ के एक समूह को ‘अच्छा तालिबान’ और दूसरे गुट को ‘बुरा तालिबान’ मानने का प्रस्ताव रखा था।इसमे कोई रहस्य नहीं है कि ‘बुरा तालिबान’ गुट वह है जो अमेरिकी नेतृत्व वाली ताकतों के निर्देशों का पालन नहीं करता है। ‘यदि आप हमारे साथ नहीं हैं, तो आप हमारे विरुद्ध हैं,’ मित्रों, सहयोगियों और विरोधियों के बीच भेद करने का उनका तरीका यही है। इस तरह  के व्यवहार से अमेरिका अफगानिस्तान की अपनी गलती से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता।

अफगान मामलों में अमेरिका की भागीदारी का मुख्य उद्देश्य न केवल 9/11 के आतंकी हमलों के अपराधियों को दंडित करना था, अपितु इसकी उत्पत्ति शीत युद्ध  से हुई थी। अमेरिका ने सोवियत संघ की विस्तारवादी रणनीति से लड़ने के लिए अपनी विदेश नीति का पुन निर्धारण आरंभ कर दिया था। तत्कालीन यूएसएसआर,  उस समय मध्य एशिया में विस्तार  और अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी आधिपत्य एवं विश्व व्यवस्था के विरुद्ध मित्रों और सहयोगियों का एक बड़ा गठबंधन बनाकर हिंद महासागर तक पहुंचने के लिए उत्सुक था।

अमेरिका के सामरिक समुदाय के लिए सोवियत संघ के खिलाफ खड़े होने में सक्षम किसी भी शासन अथवा नेता पर निवेश करना उचित था। फारस की खाड़ी में रणनीतिक पैठ  के लिए अमेरिका ने    आधुनिक हथियारों से लैस, अपनी  पुरातन  सामाजिक-राजनीतिक हठधर्मिता के लिए प्रतिबद्ध  कट्टरपंथी संगठन तालिबान के सृजन में पाकिस्तान  की सहायता की।

सोवियत संघ के विघटन के बाद, अमेरिका ने अचानक अफगानिस्तान को उसके भाग्य पर छोड़ने का फैसला किया,  और यह दिखाया कि  सब ठीक है। शीत युद्ध समाप्त हो गया था और विश्व साम्यवाद को अतीत की बात माना जा रहा था। परंतु व्हाइट हाउस यह  भूल गया कि अपने पीछे छोड़ आए अत्यधिक विनाशकारी आधुनिक हथियारों का एक भाग धार्मिक कट्टरपंथियों के हाथ लग गया है, और  जिनके फलस्वरूप अफगानिस्तान की प्राचीन भूमि अफगान के प्रिय खेल बुज़काशी का स्थान  बन गई

, अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटो सेना तालिबान लडाकुओ का वांछित लक्ष्य बन गयी, जिन्हें सोवियत संघ की लाल सेना से  मुक्ति  के लिए उसी अमेरिकी सेना   द्वारा युद्ध की कला सिखाई गई थी। तालिबान आसपास के आतंकवादी समूहों के साथ-साथ अल कायदा जैसे संगठनों का सहायक बन गया, जिसने पाकिस्तान से सूडान तक अपना भारी दबदबा कायम किया।

दुनिया को इस दुखद  वास्तविकता की जानकारी  बहुत देरी से  हुई और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को संकल्प 1267 को अपनाने की अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, इसने अल-कायदा और तालिबान प्रतिबंध समिति बनाई थी। लेकिन इन सबका उन आतंकी संगठनों पर बहुत कम प्रभाव पड़ा, जो राक्षसी अनुपात में बढ़ रहे थे। अंतत: अमेरिका को अपनी ही दवा का स्वाद मिल गया। अमेरिका पर 9/11 के आतंकी हमले ने देश को नींद से झकझोर कर रख दिया और व्हाइट हाउस को आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणा करने के लिए मजबूर कर दिया।

यह स्थिति अमेरिका की अपनी मूर्खता और त्रुटिपूर्ण रणनीतियों के कारण उत्पन्न हुई एक राष्ट्रीय आपदा थी,  जिसे एक वैश्विक समस्या में बदल दिया गया। विडंबना यह है कि अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ अपने युद्ध में सहयोगी के रूप में भारत या लोकतांत्रिक दुनिया के समर्थन को सूचीबद्ध नहीं किया। इसने पाकिस्तान का समर्थन लेने का निर्णय किया, जो सभी आतंकी गतिविधियों का प्रतीक बन गया था।

इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। अमेरिका ने एक ऐसा युद्ध लड़ा जिसका कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं था। यदि आतंकवाद को हराना  उनके उद्देश्यों में से एक था, तो अमेरिका के पास न तो उपकरण थे और न ही कोई रणनीति। यदि  उद्देश्य खूंखार तालिबान को खत्म करना था, तो इसके लिए बीस साल का समय बहुत लंबा था। बीस वर्षों के लंबे समय में, लगभग दो ट्रिलियन डॉलर खर्च करके, ढाई हजार से अधिक लोगों की जान गंवा कर और लगभग दो लाख लोगों को मार कर, एक थकी हुई और पराजित अमेरिकी सेना ने अपने हाथों से सब कुछ गवां दिया और जल्दबाजी में अफगानिस्तान छोड़ दिया; लगभग वैसा ही जैसा नब्बे के दशक में  किया था। तालिबान ने सहजता से आगे बढ़कर काबुल पर कब्जा कर लिया, जैसा कि उन्होंने  भी नब्बे के दशक में किया था।

यह मानना उचित नहीं है कि तालिबान एक बदला हुआ संगठन है और वे लोकतांत्रिक गुणों के प्रतिमान बन गए हैं। यदि समाचार रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए, तो  संभवत उन्होंने सहिष्णु संगठन के रूप में एक नई और शांत छवि पेश करने जैसे प्रचार के कुछ नये गुर सीखे होंगे परन्तु यह लंबे समय तक छिपे नहीं रह सकते और न ही झूठ को हमेशा के लिए दबाया जा सकता है। तालिबान के  विरुद्ध विरोध प्रदर्शन के वीडियो जारी करना आतंकवादी संगठन के प्रचार मिशन का हिस्सा प्रतीत होता है जो आम अफगान नागरिकों का व्यापक समर्थन  प्राप्त करने में सक्षम नहीं है। विदेशी पत्रकारों को साक्षात्कार देना और महिलाओं को काम करने की स्वतंत्रता एवं लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति देने के वादे भी तालिबान के “निष्पक्ष और प्रिय” चेहरे को पेश करने के लिए प्रचार योजना का हिस्सा हैं।

अफगान नेशनल आर्मी द्वारा  प्रतिरोध न करने के कारण तालिबान के लिए काबुल पर कब्जा करना आसान था। सत्ता को बनाए रखना आसान नहीं  है।

यह स्पष्ट है कि तालिबान में  अंतर्विरोध की गहरी जड़े  जन्मजात हैं। पश्तून और गैर-पश्तून गुटों के अलावा, कई अन्य छोटे समूह हैं जो अपनी आदिवासी पहचान और अपनी भूमि और संपत्ति पर नियंत्रण के बारे में अत्यधिक जुनूनी हैं। बहुत जल्द चीन और अन्य शक्तियाँ खनिजों के खनन और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए ठेके लेने की ओर कदम बढ़ाएँगी

काबुल में तालिबान प्रतिष्ठान के लिए ठेके देना, मध्यस्थ की भूमिका निभाना और लूट का अपना हिस्सा लेना आसान नहीं होगा। उदाहरण के लिए, लोकतंत्र के दिनों में भी अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल (एएनएसएफ) के लिए रघिस्तान सोने की खान पर पूर्ण  नियंत्रण करना कठिन हो गया था, यह  क्षेत्र ताजिक लड़ाकों के नियंत्रण में था, जिन्हे तालिबान में पद प्राप्त था । एएनएसएफ के व्यावहारिक रूप से चले जाने के पश्चात्, यह उम्मीद कम ही है कि यह समूह सोने की खदानों पर अपना नियंत्रण कायम रख पाये । वैसे भी तालिबान  की  समस्याएं आरंभ हो चुकी हैं, क्योंकि बैंकों के पास डॉलर खत्म हो रहे हैं और सोने की तिजोरियां खाली हैं।

पाकिस्तान और चीन दोनों बहुत जल्दी  अफगानिस्तान में प्रवेश कर लेंगे। यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि काबुल में चीन की रणनीतिक बढ़त है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को निशाना बनाने वाले बलूच स्वतंत्रता सेनानियों को नियंत्रित करने के लिए चीन को तालिबान के समर्थन की जरूरत है। झिंजियांग में उइगर मुसलमानों के साथ अमानवीय व्यवहार की पृष्ठभूमि में काबुल में एक इस्लामी अमीरात से निपटना बीजिंग के लिए आसान नहीं है। तालिबान निश्चित रूप से  चाहेगा कि चीन  झिंजियांग में अपने अधिकार को समाप्त करे। चूंकि तालिबान में एक भी अफगान नहीं है, इसलिए उसके लिए कुछ उइगर स्वतंत्रता सेनानियों को अपने में शामिल करना आसान होगा।

तालिबान की सबसे महत्वपूर्ण लेकिन कमजोर कड़ी उत्तर  है जहां ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) या तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी बहुत सशक्त और सक्रिय है। उइगर राष्ट्रवादिता के निकट यह सुन्नी इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन तालिबान नेतृत्व से शिनजियांग में नियंत्रण वापस लेने के लिए कहेगा और चीनी कब्जे वाले बलों के साथ वही करना चाहेगा जो तालिबान ने अफगान सेना और उसके सहयोगियों के साथ किया था।

चीन की अपनी यात्रा के दौरान तालिबान के शीर्ष नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को ईटीआईएम के विद्रोह को कम करने के लिए कहा गया था, जिसे चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने ‘चीन की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए  प्रत्यक्ष खतरा’ बताया था। तालिबान के लिए उन इलाकों में ईटीआईएम का विरोध करना आसान नहीं होगा, जो कभी उत्तरी गठबंधन का गढ़ हुआ करते थे।

इस बीच, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के अध्यक्ष के रूप में भारत ने आतंकवाद से निपटने के लिए चीन को  दोहरा खेल नहीं खेलने की चेतावनी दी है। जबकि चीन इसे ‘आतंकवाद’ कह रहा है। उइगर को बीजिंग द्वारा उनके मौलिक अधिकारों के विध्वस् के प्रतिरोध में,  अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इस क्षेत्र के अन्य अनेक आतंकवादी संगठनों का समर्थन करने में कोई परेशानी नहीं है। चीन ने पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद के मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी के रूप में नामित करने में शेष दुनिया के साथ जाने से लगातार इनकार किया था। परंतु आतंकवाद  को भिन्न पैमानों से देखने वाला  चीन अकेला देश नही है।

नई दिल्ली “प्रतीक्षा करो” के सही रास्ते पर  है। भारत तालिबान को जल्द  मान्यता देने या  आतंकवाद को तालिबान  की नीति के रूप मे पूरी तरह से खारिज  करने की स्थिति में नहीं होगा। भारत ने काबुल में   मानवीय सहायता, बुनियादी ढांचा समर्थन और शांति तंत्र प्रदान किया है। भारत अफगानिस्तान के लोगों के लिए यह सब  जारी रखना चाहेगा, जो शांति और प्रगति  के हकदार हैं।

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लेखक
डॉ शेषाद्रि चारी विदेश नीति, रणनीति और सुरक्षा मामलों पर टिप्पणीकार हैं। वह फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्योरिटी (FINS) के महासचिव और अंग्रेजी साप्ताहिक आयोजक के पूर्व संपादक हैं।

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POST COMMENTS (1)

Indresh Mishra

अगस्त 25, 2021
भारतीय सरकार का अफगानिस्तान में तालिबान के प्रति स्पष्ट एवं दो टूक रवैया होना चाहिए कि आप बंदूक की दम से काबिज हुये हैं यह स्वीकार्य नही है.! विश्व स्तर पर इससे भारत की छवि विश्वबंधुत्व एवं लोकतंत्र के नायक के रूप में स्थापित होगी.! अफगानिस्तान में अस्थिरता का यह दौर अभी सिर्फ प्रारंभ हुआ है,यह लगभग एक या दो सालों तक चलता रहेगा,इस दौरान भारत को उन सभी देशों के साथ जो अफगानिस्तान में शांति,समृद्धि और लोकतंत्र के पक्षधर हैं के साथ मिलकर उन तत्वों या ग्रुपों को आर्थिक एवं सैन्य उपकरण मदद मुहैया कराने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए.!जो बर्बर और तानाशाही तालिबान के सामने खड़े होने का साहश दिखाने में रूचि रखते हों.! परंतु भारत को किसी भी देश के साथ मिलकर या स्वयं किसी भी प्रकार के सैन्य अभियान में अफगानिस्तान में नही जाना चाहिए.! सिर्फ भारत सरकार पैसा खर्च तमाशा देख वाली कहावत पर चले.!

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