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समस्याग्रस्त अफगानिस्तान

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)
गुरु, 19 अगस्त 2021   |   8 मिनट में पढ़ें

 समस्याग्रस्त अफगानिस्तान

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)

मैंने उपरोक्त शीर्षक का चयन इस विषय के दायरे को खुला रखने के  उदेश्य  से किया, क्योंकि अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति अति असमंजसपूर्ण और अस्पष्ट है। हमें  स्थिति पर नज़र रखनी होगी कि अब आगे क्या होगा ?। हालाँकि, कुछ प्रश्नों का उत्तर  स्पष्ट रूप से दिया जा सकता है  और  इसी स्पष्टता  की हम तलाश कर रहे हैं।

इस तथ्य से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि अफगानिस्तान की सैन्य  घटनाओं के संबंध में पूरी दुनिया की भविष्यवाणी अफगान जीवन शैली को समझने में विफलता के कारण  गलत सिद्ध हुई। हम सभी ने युद्ध लड़ने के पश्चिमी मानकों पर भरोसा किया या अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों (एएनएसएफ) की समय अवधि के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए  हमने अपनी राष्ट्रीय रणनीतियों का सहारा लिया।

हमें इस बात से तसल्ली हुई कि उनकी संख्या 350,000 थी जो अत्यधिक मजबूत थी।  इनमें से अनेक को भारत में भी प्रशिक्षित किया गया और हमारे द्वारा उन्हें कुछ हथियार और उपकरण  भी  प्रदान किए गए। हालांकि, हमने कभी भी इस बात का वास्तविक लेखा-जोखा रखने का प्रयास नहीं  किया कि उस प्रशिक्षण का प्रभाव क्या है अथवा उपकरणों को किस प्रकार नियोजित किया जा रहा था। अमेरिका ने जो कहा, हमने आंख मूंदकर उसका पालन किया। वास्तविकता यह है कि पिछले चार वर्षों से हर साल औसतन 8000 एएनएसएफ कर्मियों की मृत्यु हो रही थी, यह निश्चय ही आंख खोलने वाला था, लेकिन  संभवत इसने हमें और अधिक गंभीरता से जांच करने के लिए  प्रेरित  नही किया।

अफगानिस्तान में हमारा एक सॉफ्ट पावर मिशन था और इससे हमने काफी सद्भावना अर्जित की, परंतु इससे हमारे सामने इसका वास्तविक स्वरूप  उभर कर नहीं आया। मुझे उम्मीद थी कि जिस प्रकार मोसुल  की लड़ाई उत्तरी इराक में  और रक्का के लिए लड़ी गई थी,  यह लडाई भी निर्मित क्षेत्रों में सड़क दर सड़क  एक पेशेवर लड़ाई  ही होगी। हालाँकि, भारत में केवल कुछ ही  व्यक्ति अपने अनुभव के आधार पर वास्तविकता को जानते थे, उनमें से कुछ  उच्च श्रेणी के राजनयिक थे जिन्होंने कुछ सप्ताह पहले ही  मेरी धारणा को ठीक करते हुए कहा था कि अफगानिस्तान में लड़ाई सीरिया और इराक की तरह नहीं होती है।

एक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक ने मुझे बताया कि एएनएसएफ को अमेरिकी बलों के अनुरूप बनाया जाता है। परंतु यह उनके लिए  बाहरी था। समान्यतः वे आम समूह में लड़ते थे न कि पेशेवर रूप से। पैसा  हर  बार अलग हाथ में जाता रहा। युद्ध में जीत प्रभावशाली कमांडरों द्वारा खरीदी और बेची जाती थी। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि भ्रष्टाचार करके अनेक वर्षों तक सैनिकों की नकली उपस्थिति बनायी जाती थी और उन्हें किए गए भुगतान भ्रष्ट अधिकारियों की जेब में जाते थे। रसद के लिए पैसे की ठगी की गई, जिसके फल स्वरूप सैनिकों के पास न तो भोजन था और न ही कोई  अन्य आपूर्ति , जबकि उन्होंने कड़ी लड़ाई लड़ी थी।

इस प्रकार यह स्पष्ट था कि 350,000   की संख्या वाली मजबूत एएनएसएफ की स्थापना के लिए 80 बिलियन अमरीकी डालर की खपत करके एक बड़ा जाल बिछाया  गया  जो तालिबान को इसका विरोध करने के बजाय शहरों में प्रवेश करने का  मार्ग दिखा सकता था। कोई आश्चर्य नहीं कि अमेरिका का ’90 दिनों में काबुल’ का आकलन 87 दिनों में ही गलत  हो गया।

वर्तमान समय की सबसे बड़ी खुफिया विफलताओं में से एक यह उस समय  हुई जब अमेरिका के पास तकनीकी साधन पहले से कही अधिक थे। अमेरिका ने जिस  अवधारणा का अनुमान लगाया था, उसके अनुसार  अफगान सेना द्वारा जमीनी युद्ध खुफिया सूचना और अमेरिका के हवाई समर्थन के साथ लड़ा जाना था।  इस समर्थन के बिना यह  सही नेतृत्व का निर्माण करने में विफल रहा। कम से कम वो इतना तो कर सकता था कि पाकिस्तान के एयर बेस से कुछ हवाई सहायता ले लेता , जिसका लाभ अमेरिका द्वारा उठाया जाता रहा है ।

पहले भी, जैसा सोशल मीडिया  के कई लोगों ने कहा है, कि यह युद्ध से वापसी की कार्रवाई है जिसे लागू करना सबसे कठिन है। अमेरिका इससे हर बार कठिनाई में आया है। अशरफ गनी द्वारा अपनाए गए सैन्य विकल्प पर अधिक निर्भरता झूठी प्रशंसा और उससे भी  अधिक एक अति गलत सलाह का परिणाम थी।

राष्ट्रपति बाइडेन के दावों के बावजूद, अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अमेरिका की आभासी अक्षमता, कई छोटे देशों और संगठनों को स्पष्ट संदेश भेज रही है कि  हो सकता है कि अमेरिका सफलतापूर्वक आतंकवाद का मुकाबला कर सके परंतु  आतंकवाद का मुकाबला करने में इच्छाशक्ति, सहनशक्ति और यहां तक ​​​​कि कौशल का भी स्पष्ट अभाव है। जबकि मैं सहमत हूँ कि  बड़े पैमाने पर लड़े गये छोटे युद्ध, जैसा तालिबान के खिलाफ युद्ध था, अमेरिकी ताकत का प्रदर्शन नही है।, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि यह अमेरिकी सैन्य  के वर्चस्व का अंत है। इस चर्चा के लिए एक अलग डोमेन है।

तालिबान कब और कितनी जल्दी व्यवस्था  को बहाल करेगा या अफगानिस्तान में अराजकता का माहौल बना रहेगा, असफल राज्य या कार्यशील राज्य होगा। संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अफगानिस्तान के लोगों से  इस मानवीय संकट को विकसित होने से रोकना होगा। समस्या यह है कि तालिबान भी बंटा हुआ  है; यह  पाषाण स्तंभ नहीं है, जिसमें बहुत से जातीय और आदिवासी गुटों और सांप्रदायिक प्रवृत्तियों की निष्ठा हो। ये अलग-अलग सत्ताएं अलग-अलग शक्तियों के साथ जिन संबंधों का आनंद  उठा रही हैं, वे एकीकरण को बनाए रखने के रास्ते में रुकावट पैदा करेंगी।

ऐसा लगता है कि रूस द्वारा अपने राजदूत की पहल से कुछ बाहरी ट्रिगर प्रदान किए गए हैं। पाकिस्तानी अभी तक स्पष्ट रूप से  कही दिखाई नहीं दे रहे हैं उन्हे लगता है कि  कहीं उन्हें तालिबान को सक्षम बनाने का दोषी न ठहरा दिया जाए। हालाँकि, पाकिस्तान से आने वाले बयानों से पता चलता है कि अफगानिस्तान वास्तव में एक विकसित और उदार व्यवस्था के अंतर्गत एक नया अस्तित्व शुरू करने के लिए मुक्त हो गया है। यह सर्वविदित है कि जो कुछ हो रहा है उसके लिए पाकिस्तान जिम्मेदार है। यह सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त समय की आवश्यकता नही है कि  भारत तालिबान के कामकाज में न्यूनतम  अथवा यदि संभव हो तो कोई भूमिका न निभाए।

स्थितियों के सामान्य होने के संबंध में: तालिबान ने अब तक  विदेशी मिशनों के लिए या सरकार के लिए काम करने वाले अफगान नागरिकों के बाहर निकलने  पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नही लगाया है।  किसी प्रकार के प्रतिशोध की सूचना नहीं  मिली है। लेकिन खबरों का फोकस फिलहाल काबुल पर है; अन्य शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों से कोई खबर नहीं आ रही है। तालिबान का  यह रवैया   स्पष्ट रूप से अधिक वैधता  प्राप्त करने के लिए है, ऐसा लगता है कि यह सामरिक उद्देश्यों के लिए एक प्रक्षेपण है। वे कुशल श्रमिकों और शिक्षित कर्मचारियों के बिना सरकारी मशीनरी को पंगु नहीं बनाना चाहते। हालांकि, जल्द ही इसके अपने कार्यकर्ता अपने  हिस्से की मांग करेंगे और इससे अराजकता  बढ़ेगी।

असली मुद्दे कुछ महीने बाद सामने आएंगे। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अधिकांश प्रभावशाली राष्ट्रों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि  महिलाओं के प्रति व्यवहार, प्रतिशोध पर नियंत्रण  तथा सामाजिक वातावरण की सत्यता जान लेने के  बाद  ही इसे मान्यता और वैद्यता प्रदान की जायेगी।  तालिबान और पूर्व एएनएसएफ के पास हज़ारो घातक हथियार  हैं। एक आधिकारिक नई  राष्ट्रीय  सेना के गठन से  इन्हें नियंत्रण में लाना होगा। शेष हथियारों को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है, ऐसा न हो कि वे अन्य संभावित अशांत क्षेत्रों में तालिबान के हित  में इसका उपयोग करें।

यह  स्पष्ट है कि तालिबान ने संभवत: पिछले कुछ महीनों में एएनएसएफ के कुछ कमांडरों के साथ किए गए सौदों  के समान ही सरकारी तंत्र में कई अन्य पूर्व तत्वों के साथ भी इसी तरह के सौदे किए थे। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई, पूर्व विदेश मंत्री सलाहुद्दीन रबानी और पूर्व उप राष्ट्रपति करीम खलीली सभी प्रभावशाली नेताओं में से हैं जो इसको करीब से देख रहे हैं। वे कितना प्रभाव डालते हैं यह देखा जाना बाकी है

कुछ पूर्व एएनएसएफ कर्मियों को  पहले से ही विशेषज्ञ उपकरणों  का प्रभारी बनाया गया गया है जिन्हें कब्जा कर लिया गया है या  उन्हे ये हथियार सौंप  दिये गए है। इसका अभिप्राय है कि  जीत के बाद के विन्यास के बारे में सोचा गया है और अगर अलग-अलग गुट एक साथ  आते हैं तो विघटनजल्द ही  हो  सकता हैं।

कुछ अनुमान लगाए जा रहे हैं कि  अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों का एकत्रीकरण हो सकता है। यह मान लेना गलत नहीं होगा कि मौजूदा संकट की इन परिस्थितियों में कुछ इस्लामी आतंकवादी समूहों को इसमें शामिल होने और नेटवर्क स्थापित करने में सुविधा मिल सकती है। तालिबान आतंकी संगठनों के साथ बड़े पैमाने पर संपर्क के लिए जाना जाता है और उसने उस अभ्यास से हटने का कोई प्रमाण नहीं दिया है। फिर भी, यह मान लेना  उचित होगा कि तालिबान  आतंक के खेल में  तुरंत वापस आ जाएगा। यह पूरी तरह से इस बात पर निर्भर   होगा कि उन पर कौन से गुट हावी हैं।

इसमे संदेह है कि तालिबान आतंकवादी समूहों को सुरक्षित आश्रय मुहैया कराकर एक बार फिर खुद को कमजोर बनाने के लिए तैयार होगा। यह इस्लामिक स्टेट और कुछ पाकिस्तानी समूहों का विरोध करता रहा है। इस क्षेत्र में जो कुछ भी होता है  या तो जल्द ही उसमे वृद्धि हो जायेगी  क्युकि गतिविधियों पर नियंत्रण  कम है, या   वे  भविष्य की रणनीतिक योजना पर विचार-विमर्श के बाद तालिबान का  अनुपालन करना चाहते हैं।

उम्मीद के मुताबिक चीन ने तालिबान का स्वागत किया है। यहां इसके कई निजी हित हैं। सर्वप्रथम वह, रूस के साथ-साथ मध्य एशियाई गणराज्य (72 मिलियन मुस्लिम) और झिंजियांग (22 मिलियन) क्षेत्र को शामिल करने के लिए निकटवर्ती मुस्लिम बहुल क्षेत्र की भेद्यता के बारे में चिंतित है। वह नहीं चाहेगा कि तालिबान इस संवेदनशील क्षेत्र की स्थिरता और सुरक्षा से समझौता करने के लिए कुछ भी करे !

दूसरे यह माना जाता है कि इसमें बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के कुछ लुभावने हथियार शामिल हैं, जो इस क्षेत्र से आर्थिक   एवं रणनीतिक रूप से  सम्बद्ध हैं। यह अब न्यू ग्रेट गेम के क्षेत्र के रूप में  जाने गये क्षेत्र में अपनी पहुंच का विस्तार करना चाहता है। तीसरा, खनिज (बिना मात्रा में) और दुर्लभ मिट्टी की उपलब्धता चीन के लिए एक बड़ा प्रलोभन और तालिबान के लिए धन का एक बड़ा स्रोत होगा। चौथा, यदि अमेरिका को यहां रणनीतिक रूप से वंचित किया जाता है, तो चीन को इससे स्वतः ही  लाभ  होगा  यह देखना होगा कि क्या चीन अफगानिस्तान को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए तैयार होगा  अथवा नहीं।जब तक  स्थिति में सुधार नही होता और  अंतरराष्ट्रीय फंडिंग के माध्यम से  व्यवस्था नहीं हो जाती  तब तक चीन को 10 बिलियन डॉलर तक की राशि तालिबान को प्रदान करनी पड़ सकती है।

एक राष्ट्र जो संभवतः अत्यंत प्रभावशाली रूप से उभरेगा वह है ईरान। रूस और चीन दोनों के साथ इसके सामरिक संबंध हैं और इसके हित शिया अल्पसंख्यकों की सुरक्षा में अंतर्निहित हैं। उत्तर में ताजिकिस्तान भी एक महत्वपूर्ण राष्ट्र है। भारत को दोनों देशों के साथ अपने संबंधों को बढ़ाना चाहिए

कई अन्य मुद्दे हैं जिनका प्रारंभिक मूल्यांकन किया  जाना चाहिएऔर इस समय इस मूल्यांकन  का महतव  अधिक है। हालाँकि, मुझसे  दो सवाल नियमित रूप से पूछे जाते हैं। सबसे पहले, तालिबान के अधिग्रहण का पाकिस्तान के रणनीतिक व्यवहार और भारत के साथ उसके संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? भारत में आंतरिक सुरक्षा और विशेष रूप से केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में इसका क्या प्रभाव होगा। दूसरे, क्या भारत को तालिबान के साथ संबंधों में इस तथ्य को ध्यान में  रखना चाहिए कि  तालिबान प्रतिनिधियों के अब तक के बयानों में कुछ भी  नकारात्मक सामने नहीं आया है। इस लेख को पूरा करने के लिए इन पर एक संक्षिप्त अभिव्यक्ति आवश्यक  थी।

तालिबान 2.0 के रणनीतिक दृष्टिकोण पर पाकिस्तान का बहुत कुछ निर्भर करता है। अगर वह मजबूत  होने के पश्चात् अपने विकल्पों की तलाश करता है, तो पाकिस्तान को प्रभावशाली होने  की उनकी महत्वाकांक्षाओं के  लिए छोटा सा झटका मिल सकता है। यदि तालिबान 2.0 1.0 किस्म की प्रतिकृति है, तो बड़े उम्मा के हितों  का ध्यान रखने वाले इस्लामीकृत क्षेत्र  में पाकिस्तान की मूल  रणनीतियां अमल में आ सकती हैं। यह रणनीति दो उद्देश्यों  पहला; इस्लामी दुनिया  में पाकिस्तान की स्थिति को बढ़ाने और  दूसरा भारत के  लाभ को बेअसर करने के उद्देश्य से होंगी

यह कहना  आनंदित करता है  कि १९८९ और २०२१ का भारत आत्मविश्वास और क्षमता में अलग ध्रुव है। भारत ने जम्मू-कश्मीर को स्थिर कर दिया है लेकिन कुछ मामलों में इसकी आंतरिक सुरक्षा अभी भी कमजोर है। यही कारण है कि भारत को अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होगी, यह सुनिश्चित करते हुए कि आतंक और अलगाववादी नेटवर्क को फैलने  नहीं  दिया जायेगा और जम्मू-कश्मीर में इसकी हालिया उपलब्धियों को और भी अधिक  स्थिर किया  जाए।

अंत में, सवाल यह है कि क्या भारत को तालिबान 2.0 के साथ जुड़ना चाहिए या नही? हमने भारतीय राजदूत सहित अपने दूतावास के कर्मचारियों को  काबुल से वापस बुला लिया है जो वास्तव में तालिबान 2.0 में अविश्वास का संदेश है। शायद काबुल में आधिकारिक उपस्थिति बनाए रखने में बहुत अधिक जोखिम  था, विशेष रूप से तब  जब स्थिति के  सामान्य होने के कोई संकेत नहीं थे और इसलिए भी कि हमने इन  वर्षों में आपसी संबंध स्थापित नही किये है।

शायद भारत अमेरिका पर बहुत अधिक निर्भर था और इस संदर्भ में अमेरिका,     – ईरान और तालिबान को अपना विरोधी मानता है ! इसलिए  भारत  अमेरिकाः को नाराज नहीं करना चाहता । फिर भी संभावित भावी संबंधों के लिए कुछ संपर्क बनाए रखना भारत के हित में होगा।

अब विश्वास के साथ एक नई शुरुआत करनी होगी। सौभाग्य से, भारत के बारे में आम आदमी की धारणा अत्यंत सकारात्मक बनी हुई है और भारत द्वारा प्रदान की गई सॉफ्ट पावर सहायता का इतिहास अभी भी एक प्रलोभन के रूप में कार्य कर सकता है। इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारत-तालिबान 2.0 के  रिश्ते को उभरने से रोकने के लिए पाकिस्तान अतिरिक्त प्रयास  करेगा। हालाँकि, ऐसी  स्थिति मे कतर, ईरान और रूस की सहायता उपयोगी होगी। L

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लेखक
लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय सेना के श्रीनगर कोर के पूर्व कमांडर रहे हैं। वह रेडिकल इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमने वाले मुद्दों पर विशेष जोर देने के साथ एशिया और मध्य पूर्व में अंतर-राष्ट्रीय और आंतरिक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वह कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और रणनीतिक मामलों और नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमने वाले विविध विषयों पर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में बड़े पैमाने पर बोलते हैं।

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