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हर राष्ट्र का यह प्रयास होता है कि वह अपनी विरासत के अ।धिपत्य को प्राप्त करें। अंग्रेजों एवं अन्य पश्चिमी देशों से जब एशिया और अफ्रीका में कई राष्ट्र आजाद हुए तो काफी देशों ने अपने पूर्व के शासकों से प्राप्त सीमा रेखा को स्‍वीकार किया जबकि कुछ अन्य ने तरह तरह के विवादों को जन्म दिया।

जब बाकी राष्ट्र अपनी आजादी के बाद अन्य मामलों में उलझे रहे, तब वहीं चीन ने एक अक्टूबर 1949 को आजादी के तत्काल बाद विस्तारवादी रूप अपनाया। अपने पूर्व शासक, जो ताइवान चले गए थे, की सीमाओं को अपनाने की बजाय चीन ने अपने इतिहास की सबसे ज्यादा विस्तारवादी चिंग राजवंश (Qing Dynasty) की सीमाओं की तरफ रुख किया। चिंग राजवंश एक समय में मंगोलियां, जिंगजियांग और तिब्बत को मिलाकर लगभग 14 लाख स्क्वायर किलोमीटर पर शासन करता था। उसी के आधार पर चीन ने अपना विस्तार करना शुरू कर दिया जिसमें 1950 में तिब्बत का राज्य हरण (Annexation) भी शामिल है।

चीन की आजादी (01 अक्‍टूबर 1949) के 2 वर्ष पहले ही आजाद हो चुके भारत ने अपनी सीमा विस्तार के बारे में नहीं सोचा। वस्तुतः पूर्व में अपने इतिहास में मौर्य एवं चोला साम्राज्य के विस्तार को भी आधार बनाया गया होता तो हम अपने आधिकारिक विरासत की तरफ बढ़ रहे होते। इतना ही नहीं ब्रिटिश भारत ने अपनी पूरी सीमा को भी देश के हवाले नहीं किया। कुछ राष्ट्र आजादी के कुछ वर्ष पहले स्वतंत्र हो गए जबकि बाकी बंट गए और आज भी एक दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं। अतीत को बदला नहीं जा सकता लेकिन एक निरपेक्ष विवेचना से हम अपने वर्तमान को एक बेहतर भविष्य की तरफ ले जा सकते हैं, क्योंकि चीन का अतिक्रमण एवं विस्तारवाद पूरी तरह से चारों दिशाओं में बढ़ रहा है और विश्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा चीन के विस्तारवाद से परेशान हैं जिसमें भारत भी शामिल है।

अगर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं सिक्किम में छोटे विवादों को छोड़ दिया जाए तो मूल विवाद अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश में है। वैसे तो चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत कहकर अपना अधिकार जताने की कोशिश करता है जबकि तिब्बत काफी समय तक एक स्वतंत्र देश रहा है। चीन को आजादी मिलने के समय तिब्बत को स्वतंत्र राष्ट्र के सारे अधिकार थे जिसे 1950 में चीन ने सैन्य बल से कब्जा करके अपना हिस्सा बना लिया। सही मायने में जब तिब्बत पर उसका अधिकार ही गैरकानूनी है तो दक्षिणी तिब्बत का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। यह बात भी मायने रखती है कि 1914 में शिमला सम्मेलन में मैक मोहन रेखा पर सहमति तथा इसी विचार का 1959 की दावा रेखा (Claim Line) में भी जिक्र था। अतः अब मुख्य मुद्दा अक्साई चिन का है।

देखने वाली बात यह है कि अक्साई चिन के हमारे भूभाग पर जबरदस्ती कब्जा करने के बाद भी चीन तमाम ऐसी कार्यवाहियॉ कर रहा है जो उसके विस्तारवाद को नया आयाम दे रही है और सीमा विवाद को सुलझाने की बजाय उसे उलझाने की कोशिश की जा रही है। वैसे तो चीन तमाम ऐसी गतिविधियां कर रहा है लेकिन तीन का जिक्र जरूरी है, जिसमें आदर्श गांवो को सीमा रेखा के पास बसाना, लैंड बॉर्डर कानून बनाना एवं अरुणाचल प्रदेश में कुछ जगहों को तिब्बत भाषा में नाम देना शामिल है।

चीन लगातार सभी सीमावर्ती व विवादित जगहों पर आदर्श गांव बसा रहा है जिसमें सिंगजियांग, तिब्बत-लद्दाख, सिक्किम, भूटान व अरुणाचल प्रदेश की सीमाएं शामिल है। उसकी योजना है कि इन गांवों में चीन के मूल निवासियों को बसाया जाए ताकि तिब्बत में जनसंख्या की प्रवृत्ति में बदलाव हो। इन गांवों का स्थान ऐसी जगह चुना गया है जहां सेना इसका बखूबी इस्तेमाल कर सके। चीन मूलत: दोहरे उपयोग के बुनियादी ढांचों को आगे बढ़ा रहा है। जब इन गांवों में लोग रहने लगेंगे तो इनके आगे जाना शायद संभव नहीं होगा क्योंकि 2005 एवं 2013 में जो हमारा समझौता हुआ है, उसमें मौके पर रह रहे लोगों के हितों की सुरक्षा की बात कही गई है।

एक तरफ चीन जब सीमा रेखा के पास गांव बढ़ा रहा है, भारत में इस तरह की प्रगति पीछे छूटती नजर आ रही है। इसके कई कारण हैं जिसमें विकास व रोजगार की कमी के साथ-साथ शिक्षा व चिकित्सा का समुचित अभाव भी है। वस्तुतः 11वीं व 12वीं शताब्दी में जहां बाहर के लोग उत्तराखंड (तब के प्रदेश) में आ रहे थे, वही आजकल पलायन हो रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक सीमावर्ती इलाके में लगभग 25% गांवों में पूर्ण या आंशिक पलायन बताया जाता है। सीमा के प्रदेशों में जमीन खरीद पूर्ण रूप से मुक्त न होना भी यहां लोगों के बसने में अवरोध पैदा करता है।

2013 में चीन की सत्ता हासिल करने के बाद शी जिनपिंग जीवन पर्यंत राष्ट्रपति बने रहने की योजना पर काम कर रहे हैं और इसलिए उन्होंने सारे विवादों को एक साथ भड़काया है। इसी कड़ी में अक्टूबर 2021 में लैंड बॉर्डर कानून पास किया गया जो 1 जनवरी 2022 से प्रभावी है। इस कानून ने पूरे सीमा विवाद को एक नया मोड़ दे दिया है। यद्यपि हमारे विदेश विभाग ने इस पर विरोध जताया है लेकिन चीन के लिए यह सब सांकेतिक है। बाहर से सामान्य लगने वाला यह कानून अपने अंदर तमाम ऐसी बातों को लेकर सामने आया है जिसके दूरगामी प्रभाव होंगे। सेना, अर्धसैन्‍य बलों एवं सरकारी विभागों के साथ-साथ इसमें आम जनता को भी सीमा रेखाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी दे दी है। चीन अपने 14 पड़ोसी देशों में से 12 देशों के साथ सीमा विवाद सुलझा चुका है। केवल भारत और भूटान बचे हैं। अतः यह कानून मूलतः भारत के खिलाफ उपयोग में लाया जाएगा।

तीसरा मुद्दा अरुणाचल प्रदेश के 15 जगहों को तिब्बत भाषा में नाम देना है। यह अकल्पनीय है कि चीन यह हिमाकत कर रहा है कि वह हमारे एक प्रदेश की जगहों को नया नाम दे रहा है। वह ऐसा 2017 में भी 6 जगहों पर कर चुका है। चीन अब हर उस प्रयास में शामिल है ताकि तिब्बत के लोगों का भरोसा पा सके। वह अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश की लड़ाई तिब्बत के लोगों की लड़ाई दिखाकर उनका विश्वास जीतना चाहता है ताकि उनका और शोषण कर सके।

एलएसी पर अतिक्रमण विवाद को नए मोड़ पर ले जाने की कोशिश है ताकि वह इस इलाके में 1959 की सीमा रेखा को पा सके। उम्मीद है कि कैलाश रेंज पर हमारे कब्जे से चीन को एक सीख मिलेगी और आगे आने वाले दिनों में हॉट स्प्रिंग’का मुद्दा भी सुलझ जाएगा। मुख्य चुनौती “देपसांग” के इलाके में है क्योंकि अगर चीन इस इलाके में पीछे नहीं गया तो डीबीओ यानी दौतल बेग ओल्‍डी और उसको जोड़ने वाले मार्गों के माध्यम से मिला फायदा सीमित रह जाएगा।

जरूरत है कि हम चीनी चाल को समझे तथा अपनी समग्र शक्तियों का उपयोग अपने विकास में लगाकर एक सशक्त भारत का निर्माण करें जिसके लिए सशक्त सेना और आधुनिक सेना का होना बहुत जरूरी है।

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