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]]>आजादी के फौरन बाद पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से अक्टूबर 1947 में हमला कर दिया। पाकिस्तानी सेना के इस हमले को महाराजा की छोटी सी सेना रोक नहीं पाई जिसके कारण पाकिस्तानी सेना कश्मीर घाटी में बारामुला तक आ गई और जम्मू क्षेत्र में इसने नौशेरा, रजौरी, पुंछ और तिथवाल आदि पर कब्जा कर लिया। इस पूरे क्षेत्र में कहीं पर भी महाराजा के सैनिक नहीं थे और इस समय तक जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय भी नहीं हुआ था। इसलिए पाकिस्तान के हमले के समय भारतीय सेना वहां पर सीमाओं की सुरक्षा के लिए उपलब्ध नहीं थी। राज्य का भारत में विलय होने के बाद भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर में मोर्चा संभाला और इन हमलावरों को पीछे धकेलना शुरू किया। दोनों सेनाओं में युद्ध अक्टूबर 1948 तक चला और आखिर में भारतीय सेना ने पूरे जम्मू क्षेत्र से पाक सेना को बाहर किया। इसी क्रम में कुपवाड़ा के तिथवाल में दोनों सेनाओं के बीच में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें आखिर में भारतीय सेना की ही विजय हुई। इसी युद्ध में वीर सैनिक लांस नायक करम सिंह की वीर गाथा भी है।
लाज बचाने को तिथवाल पर हमला भी हार गई पाकिस्तानी सेना
सामरिक दृष्टि से तिथवाल एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह भारत-पाकिस्तान के बीच में नियंत्रण रेखा पर स्थित है। इसी गांव के पास में नीलम नदी पर एक महत्वपूर्ण पुल है। पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद (1947 से पहले) कुपवाड़ा–श्रीनगर जाने वाली सड़क इसी से गुजरती थी। वर्ष 1947 से पहले श्रीनगर और मुजफ्फराबाद के बीच में यह पुल एक महत्वपूर्ण संचार का साधन था। बारामुला के रास्ते श्रीनगर पर कब्जा करने के साथ-साथ पाकिस्तान तिथवाल क्षेत्र से आगे बढ़कर भी कश्मीर घाटी पर कब्जा करना चाह रहा था। जिसके द्वारा वह दोनों दिशाओं से कश्मीर घाटी पर अपने कब्जे को मजबूत करना चाहता था। इसी इरादे से युद्ध शुरू होने के कुछ ही दिन बाद पाकिस्तान सेना ने जम्मू क्षेत्र के महत्वपूर्ण स्थानों पर कब्जा करते हुए तिथवाल गांव पर भी अपना कब्जा कर लिया था। दिसंबर 1947 में नौशेरा के शेर कहे जाने वाले ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान ने धीरे-धीरे पाकिस्तानी सेना को इस क्षेत्र से बाहर निकालना शुरू किया और 23 मई को उन्होंने तिथवाल पर भी दोबारा कब्जा कर लिया था। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तिथवाल पर दोबारा कब्जा करने के लिए पाकिस्तानी सेना ने मई से ही हमले करने शुरू कर दिए। इसी क्रम में अक्टूबर 1948 में पाक सेना ने अपना इरादा बनाया कि वह तिथवाल को एक तरफ छोड़ते हुए रिचमार गली के बाईपास से श्रीनगर तक आगे बढ़ेगी। इस गली के ऊपर इसकी रक्षक के रूप में एक पहाड़ी है जिस पर बहुत सीमित स्थान सैनिक चौकी बनाने के लिए है। यह पहाड़ी अन्य पहाड़ी क्षेत्रों से अलग है। इसलिए इस पर तैनात सैनिक टुकड़ी अकेले ही इस क्षेत्र की रक्षा करती थी।
चोटी पर चट्टान बने रहे करम सिंह
रिचमार गली के ऊपर स्थित यह पहाड़ी एक प्रकार से तिथवाल और पूरे क्षेत्र की प्राकृतिक पहरेदार के रूप में है। जैसा कि विदित है तिथवाल-कुपवाड़ा-श्रीनगर सड़क पर आगे बढ़ने के लिए इस पहाड़ी पर कब्जा करना जरूरी था। इस पहाड़ी पर सीमित स्थान होने के कारण भारतीय सेना की सिख बटालियन का एक सेक्शन यहां पर अक्टूबर 1948 में इसकी रक्षा के लिए यहां पर तैनात था। जिसमें सेक्शन कमांडर के अलावा केवल 11 सैनिक होते हैं। 13 अक्टूबर 1948 को ईद के अवसर पर पाकिस्तानी सेना ने सोचा की ईद होने के कारण भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना की ओर से बेखबर होगी, इसलिए पाकिस्तानी सेना ने उसी दिन शाम को रिचमार पर एक ब्रिगेड के साथ अटैक शुरू कर दिया। हमले से पहले पाकिस्तानी सेना के तोपों ने यहां पर भारी बम वर्षा की। तिथवाल पर युद्ध के शुरू में कुछ समय पाकिस्तानी सेना का कब्जा होने के कारण उन्हें इस क्षेत्र के बारे में पूरी जानकारी थी। इसलिए शुरुआती बमबारी में पाकिस्तानी सेना ने रिचमार पहाड़ी पर स्थित सिख बटालियन के मोर्चों को ध्वस्त करने की कोशिश की। परंतु इसके बावजूद इस पर तैनात सिख सैनिकों ने स्वयं की रक्षा की और अपने एमएमजी और मोर्टार फायर के द्वारा पाकिस्तानी सैनिकों को आगे बढ़ने से प्रभावशाली तरीके से रोका। इन हमलावरों का मुकाबला करने के लिए करम सिंह अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने और उन्हें सहायता देने के लिए एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे में जाकर सैनिकों का उत्साह बढ़ाते रहें। इसके साथ-साथ वह पाकिस्तानी सेना पर ग्रेनेड भी फेंकते रहे। क्योंकि यह पहाड़ी ऊंचाई पर थी इसलिए सिख सैनिकों के एमएसजी फायर और मोर्टार फायर पाकिस्तानी सैनिकों को रोकने के लिए प्रभावशाली साबित होते रहे। इस प्रकार 13 अक्टूबर की रात में पाकिस्तानी सैनिकों ने इस पहाड़ी पर 7 बार हमला किया जिसे वीर सिख सैनिकों ने नाकाम कर दिया था।
युद्ध के बाद एक सिख (4 मेकेनाइज्ड) के वीरों के साथ 19 इन्फैंट्री डिवीजन के डीएसओ जीओसी मेजर जनरल केएस थिमैैय्याया। तस्वीर स्त्रोत – एडीजीपीआइ फेसबुक
आखिरी हमला दुश्मन के शरीर पर नहीं, उनकी रूह पर था
इन हमलों में तीन चौथाई रात बीत चुकी थी और सुबह के 4:00 बजे पाकिस्तानी सैनिकों ने अपना आठवां हमला किया। इस समय तक भारतीय सैनिकों के पास गोला बारूद का भंडार भी समाप्त होने के कगार पर था और उन्हें इसकी पूर्ति की कोई आशा नहीं थी। बुरी तरह जख्मी होने के बाद भी करम सिंह को साथियों की चिंता थी। सैनिकों के साथ उन्होंने मोर्चे से निकलकर पाकिस्तानी सैनिकों पर हमले की योजना बनाई। इशारा मिलते ही सभी सैनिक एक साथ बिजली की गति से करम सिंह के साथ मोर्चे से बाहर आ गए और उन्होंने भूखे शेर की तरह पाकिस्तानी सैनिकों पर हमला कर दिया। भारतीय सैनिकों की ओर से ऐसे हमले के लिए पाकिस्तानी सैनिक न तो तैयार थे और न ही वह इस प्रकार के साहस की कल्पना कर रहे थे। एक-एक भारतीय सैनिक ने कई हमलावरों को अपनी बंदूक की संगीनों से मौत के घाट उतारा। इस गति और साहस को देखते हुए पाकिस्तानी सैनिक वहां से भाग खड़े हुए। इस प्रकार करम सिंह ने अपनी बटालियन को चोटी तक पहुंचकर मजबूत कब्जा जमाने के लिए पूरी रात का समय प्रदान किया। 13 अक्टूबर की रात में रिचमार पहाड़ी की रक्षा करके करम सिंह ने भारतीय सेना को बहुत बड़े संघर्ष को बचा लिया, क्योंकि यदि इस मार्ग से पाकिस्तानी सेना अंदर घुस जाती तो इसको दोबारा निकालने में भारतीय सेना को बहुत बड़ा संघर्ष करना पड़ता। और हो सकता है युद्ध और भी लंबा चलता।
भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ जनरल केएम करियप्पा के साथ लांस नायक करम सिंह। तस्वीर स्त्रोत – एनसीईआरटी शौर्य गाथा
भारत सरकार ने लांस नायक करम सिंह की बहादुरी और साहस जिसके द्वारा उन्होंने रिचमार गली के साथ-साथ पूरे तिथवाल क्षेत्र की रक्षा की, उसके लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया। सेना ने उनकी उत्कृष्ट सेवा को देखते हुए उन्हें समय-समय पर तरक्की दी और आखिर में वे सूबेदार और ऑनरेरी कैप्टन के पद से सेवानिवृत्त हुए।
आजाद भारत में तिरंगा फहराने का मिला सम्मान
सूबेदार करम सिंह का जन्म पंजाब के बरनाला जिले के सिहाना गांव में 15 सितंबर 1915 को एक किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही करम सिंह पिता सरदार उत्तम सिंह की तरह किसान बनना चाहते थे। परंतु अपने गांव के प्रथम विश्व युद्ध के सैनिकों की वीर गाथाओं से प्रेरित होते हुए वह 1941 में सेना में भर्ती हो गए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वर्मा के एडमिन बॉक्स नाम के ऑपरेशन में इन्होंने भाग लिया जिसमें उनकी बहादुरी को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें मिलिट्री मेडल से सम्मानित किया था। आजादी के बाद 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने तिथवाल के क्षेत्र में युद्ध में हिस्सा लिया जहां पर उन्हें उनकी वीरता के लिए भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ,तब करमसिंह उन पांच सैनिकों में से एक थे, जिन्हें भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ तिरंगा फहराने के लिए चुना गया था। सैन्य सेवा से निवृत्त होकर वह अपने गांव में रहे जहां उनका स्वर्गवास 20 जनवरी 1993 को हुआ। उनकी वीरता को सम्मान देने के लिए उनका अंतिम संस्कार सैनिक सम्मान के साथ उनके गांव में ही किया गया था। आज भी कुपवाड़ा क्षेत्र में सूबेदार करम सिंह का नाम तिथवाल के रक्षक के रूप में लिया जाता है।
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]]>सीजफायर से कुछ ही समय पहले इन हमलावरों ने कुपवाड़ा के एक महत्वपूर्ण स्थान तिथवाल में घुसपैठ की और इस क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण पहाड़ी रिंग कंटूर पर कब्जा कर लिया। तिथवाल का महत्व इस कारण है की किशनगंगा नाम की नदी के ऊपर बना पुल इसी स्थान पर है। इस पुल के द्वारा सड़क मार्ग से पाक अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद जो पहले अखंड कश्मीर का हिस्सा था उसे श्रीनगर से यह पुल जोड़ता है। इस पहाड़ी से इस सड़क पर पूरी नजर रखी जा सकती थी और आसानी से इस सड़क पर चलने वाले यातायात को बाधित किया जा सकता था। भारत पाकिस्तान के इस पहले युद्ध के पाकिस्तानी कब्जों से यह साफ हो गया था कि अक्सर पाकिस्तानी हमलावर ऐसे स्थानों पर कब्जा करते हैं जहां से कश्मीर घाटी का पूरे देश से संपर्क तोड़ा जा सके। यही कुछ पाकिस्तानी हमलावर तिथवाल में भी करना चाह रहे थे, जिससे जम्मू श्रीनगर के मुख्य राजमार्ग के अलावा इस मार्ग को भी बाधित किया जा सके।
जब मिला दुश्मन को उखाड़ फेकने का हुक्म
पाकिस्तान के रिंग कंटूर पहाड़ी से कब्जे को हटाने की जिम्मेदारी सेना द्वारा 163 इन्फेंट्री ब्रिगेड को सौंपी गई। ब्रिगेड ने 11 जुलाई को आगे बढ़ने का प्रयास शुरू किया परंतु अगले 4 दिन तक इसमें रिंग कंटूर पहाड़ी पर इन हमलावरों का कब्जा होने के कारण सफलता नहीं मिली। इसको देखते हुए पहले रिंग कंटूर पहाड़ी से पाकिस्तानियों को खदेड़ने के लिए सेना की 6 राजपुताना राइफल्स इन्फेंट्री बटालियन को यह जिम्मेवारी दी गई। प्राकृतिक रूप से यह पहाड़ी इस प्रकार स्थिति है जहां पर ऊपर तक जाने के लिए केवल एक रास्ता है जो कुल 1 मीटर चौड़ा है। इस रास्ते के एक तरफ ऊंची सख्त पहाड़ियां है और दूसरी तरफ गहरी खाई हैं। इसलिए इस पहाड़ी पर चढ़ने के लिए पाकिस्तानियों का सीधा मुकाबला करना जरूरी हो गया था।
बटालियन ने अपनी चार्ली और डेल्टा कंपनी को इस पहाड़ी पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ाया। कंपनी हवलदार मेजर पीरु सिंह उस समय डेल्टा कंपनी में ही थे। डेल्टा कंपनी ने 18 जुलाई को रात 01.30 बजे पर पहाड़ी पर हमला किया। इस दुर्गम पहाड़ी पर नीचे से ऊपर जाना बहुत मुश्किल था। इसलिए यह हमला रात्रि में अंधेरे का फायदा उठाने के लिए किया गया था।
दुश्मन तैयार था मारने को, पीरू तैयार थे शहादत को
सेना के हमलों में पहले तोपों के गोलों से दुश्मन के मोर्चा को बर्बाद किया जाता है, जिसे सेना की भाषा में टारगेट मुलायम करना कहा जाता है। परंतु यहां पर दुश्मन के ठिकानों पर भारतीय सेना की तोपों का फायर नहीं किया जा सकता था, क्योंकि उस समय उस क्षेत्र में तोपों के लिए स्थान नहीं था। इसलिए बगैर तोपखाने की मदद के ही इस कंपनी ने ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया। कंपनी के इस एडवांस यानि आगे बढ़ाने के क्रम में पीरु सिंह का सेक्शन सबसे आगे था। हालांकि रात में अंधेरे की आड़ में दुश्मन की गोलीबारी से बचने में मदद मिलती है। परंतु इस क्षेत्र में पिछले कुछ दिनों से भारतीय सेना की आमद को देखकर पाकिस्तानी चौकाने हो गए थे। इसलिए उन्होंने इस पहाड़ी पर चढ़ने वाले मार्ग को पूरी तरह से मोटर और मीडियम मशीन गन के फायर से सुरक्षित कर चढ़ाई को असंभव बना दिया था। इस कारण कंपनी पाकिस्तानी हमलावरों के सीधे फायर में आ गई। सैनिकों के आगे बढ़ाना शुरू करने के आधे घंटे के अंदर ही कंपनी के आधे सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। इसी कारण पीरु सिंह के सेक्शन में भी 10 सैनिकों में से 7 को शहादत मिल चुकी थी।
दौड़ पड़े दुश्मन की एमएमजी को नष्ट करने
पीरु सिंह ने स्थिति को देखते हुए समझ लिया कि दुश्मन की एमएमजी सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हो रही है। इसलिए उन्होंने बिजली की गति से पाकिस्तान की पहली एमएमजी पोस्ट पर अपने बचे हुए साथियों के साथ धावा बोल दिया। उस समय पाकिस्तानी पीरु सिंह और उनके साथियों पर ग्रिनेड और मोर्टर के गोले दाग रहे थे। इस कारण इस हमले में वीरू सिंह के शरीर में इन गोलों के टुकड़े घुस गए, जिससे वह बुरी तरह घायल हो गए और उनके साथी वीरगति को प्राप्त हो गए। पीरु सिंह के शरीर से खून बह रहा था। इस सब की परवाह न करते हुए पीरु सिंह ने इस एमएमजी पोस्ट में ग्रेनेड फेंका और वहां पर मौजूद दो पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। तभी पीरु सिंह ने देखा की दूसरी एमएमजी अभी भी फायर कर रही है। अपनी चोटों की परवाह न करते हुए पीरू सिंह ने इस दूसरी एमएमजी पर भी अकेले ही कब्जा करने के लिए धावा बोला। इस समय तक पीरु सिंह की स्टेनगन की गोलियां समाप्त हो चुकी थी और दूसरे हमले के दौरान पीरु के चेहरे के सामने पाकिस्तान का एक ग्रेनेड फटा। जिसके कारण उनके शरीर में और चोट आने के साथ-साथ उन्हें आखों से दिखना भी बंद हो गया। परंतु इस समय एक सच्चे देशभक्त की तरह पीरु सिंह लगातार राजा रामचंद्र की जय पुकारते हुए पाकिस्तानियों को केवल अपनी स्टेन की संगीन से मौत के घाट उतारते रहे और उन्होंने शीघ्रता से पाकिस्तान की दूसरी एमएमजी की पोस्ट में ग्रिनेड फेंक कर इसको तबाह कर दिया। इस प्रकार पीरु सिंह ने पूरे रिंग कंटूर पर भारत का कब्जा कर दिया था। परंतु इसी समय उनके सिर में हमलावरों की एक गोली लगी जिससे हुए वहीं पर वीरगति को प्राप्त हो गए। वीरगति को प्राप्त होने से पहले उन्होंने इस महत्वपूर्ण पहाड़ी को सुरक्षित बनाते हुए मुजफ्फराबाद-श्रीनगर सड़क को यातायात के लिए खोल दिया था।
भारत सरकार ने पीरुसिंह की इस अभूतपूर्व वीरता और बलिदान के लिए देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से मरणोउपरांत सम्मानित किया।
आज़ादी के पहले ही बन गए थे सैनिक
सीएचएम पीरू सिंह का जन्म 20 मई 1918 को राजस्थान के झुंझुनू जिले के रामपुरा बेरी गांव में हुआ था। बचपन से ही पीरु सिंह को स्कूली शिक्षा से दूर रहना पसंद था, क्योंकि उन्हें स्कूल में घुटन महसूस होती थी। इसलिए उन्होंने अपने किसान पिता का हाथ कृषि कार्य में बटाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे पीरु सिंह एक सुंदर और बलिष्ठ नौजवान के रूप में बड़े हुए जिन्हें खेल कूद के साथ-साथ शिकार का भी बहुत शौक था। 18 साल की आयु में 20 मई 1936 को वह उस समय की ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए।
तस्वीर स्त्रोत : कर्नाटक केंद्रीय विश्वविद्यालय वेबसाइट।
उन्हें सेना की पंजाब रेजीमेंट में भर्ती किया गया और ट्रेनिंग के लिए इस रेजीमेंट की 10वीं बटालियन में भेजा गया। जहां से इन्हें 1 मई 1937 को अपना प्रशिक्षण पूरा करके इसी रेजिमेंट की पांचवी बटालियन में तैनाती मिली। हालांकि पीरू सिंह को अपने बचपन में शिक्षा से लगाव नहीं था परंतु सेना में आने के बाद उन्होंने बड़ी लगन से सेना द्वारा दी जाने वाली शिक्षा को प्राप्त किया और शिक्षा में अच्छा स्थान प्राप्त किया। इसको देखते हुए पीरू सिंह को शीघ्रता से प्रमोशन मिलने शुरू हो गए। 5 पंजाब बटालियन के साथ वीरू सिंह ने आज के पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में लड़ाई में हिस्सा लिया।
पीरू सिंह को बचपन से ही खेलों में विशेष रूचि थी जिसमें उन्होंने सेना में आने के बाद हॉकी, बास्केटबॉल और क्रॉस कंट्री में राष्ट्रीय स्तर पर सेना का प्रतिनिधित्व किया। उनके इस प्रकार के व्यक्तित्व को देखते हुए उन्हें मई 1945 में कंपनी हवलदार मेजर के पद पर प्रमोशन मिला। 1945 में दूसरे युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने उन्हें जापान में अपनी कब्जा करने वाली फोर्स का हिस्सा बनाते हुए तैनात किया। भारत की स्वतंत्रता के बाद पीरु सिंह वापस भारत आए और उन्हें 6 राजपूताना राइफल्स इन्फेंट्री बटालियन में पोस्टिंग यानि तैनाती दी गई। इसी बटालियन के साथ पीरू सिंह ने जुलाई 1948 में तिथवाल के युद्ध में भाग लिया और विजय प्राप्त करके इस क्षेत्र से पाकिस्तानियों को खदेड़ा। पीरू सिंह सैनिक सेवा के लिए इतने समर्पित थे कि उन्होंने अपने जीवन में विवाह ही नहीं किया और केबल 30 वर्ष की आयु में 18 जुलाई 1948 में अपने जीवन का बलिदान राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा के लिए कर दिया।
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