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Geopolitics & National Security
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मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की प्रगति का भविष्य और सशस्त्र बलों की भूमिका

डा. धनश्री जयराम
शनि, 18 सितम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

ओजोन परत संरक्षण अंतर्राष्ट्रीय दिवस-16 सितंबर – अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता का एक अनुस्मारक है,  क्योंकि यह दिन 1987 में हस्ताक्षरित मानट्रियल प्रोटोकाल  (ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थ) पदार्थ की याद में मनाया जाता है।  इसका महत्व इस लिए भी अधिक है क्योंकि यह मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (और पूर्ववर्ती वियना कन्वेंशन) के पश्चात संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के इतिहास में पर्यावरण की दृष्टि से, वैज्ञानिक रूप से, राजनेतिक रूप से, आर्थिक रूप एवं अन्य प्रकार से सार्वभौमिक समर्थन प्राप्त करने वाली पहली संधि थी। यह केवल ओजोन परत की रक्षा में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की सफलताओं के संदर्भ में  ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह जलवायु परिवर्तन जैसी अन्य चुनौतियों का सामना करने के लिए विज्ञान आधारित सामूहिक कार्रवाई की प्रासंगिकता को भी उजागर करता है।

ओजोन छिद्र की बहाली का श्रेय मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को दिया जाता है और अब  यह संधि  जलवायु  परिवर्तन की ओर परिवर्तित हो गयी है। फिर भी चुनौतियां बनी हुई हैं, क्योंकि दुनिया एक घातक महामारी और एक बिगड़ते जलवायु संकट से जूझ रही है। महत्वपूर्ण यह है कि ये मुद्दे (समस्या और समाधान दोनों) रक्षा योजना और सैन्य सुरक्षा को भी प्रभावित करेंगे, जिससे ओजोन क्षयकारी पदार्थों (ओडीएस) को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने और वैश्विक कॉमन्स की रक्षा करने में सेना की महत्वपूर्ण भूमिका को  कम नहीं आँका जा सकता है।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का संक्षिप्त इतिहास

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए जाने से पूर्व, ओजोन परत के संरक्षण के लिए वियना कन्वेंशन को 1985 में कई देशों द्वारा औपचारिक रूप दिया गया था। इस सम्मेलन ने ‘ओजोन छेद’ की खोज या वातावरण में ओजोन परत की कमी की खोज का रूप लिया। कमी मुख्य रूप से हेलोकार्बन जैसे हैलोन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी), हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन (एचबीएफसी), मिथाइल ब्रोमाइड (सीएच 3 बीआर), मिथाइल क्लोरोफॉर्म (सीएच 3 सीसीएल 3) आदि के कारण होती है। ये रसायन रेफ्रिजरेंट, प्रोपेलेंट, वायु, कंडीशनर, फोम, अग्निशामक में पाये जाते है। पृथ्वी पर जीवन  निर्वहन के लिए समताप मंडल की ओजोन परत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह  मनुष्य जाति, पौधों, जानवरों की प्रजातियों और अन्य जीवों को सूर्य से अल्ट्रा वोइलेट विकिरणों के दुष्प्रभावों से बचाती है।

1990 के दशक के आरंभ में बहुपक्षीय कोष के निर्माण के साथ – संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी), विश्व बैंक (डब्ल्यूबी) और संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (यूएनआईडीओ) को कार्यान्वयन एजेंसियों के रूप में शामिल करना। – सहायता के लिए विकासशील देशों में ओडीएस को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (सीबीडीआर), वित्तीय और तकनीकी आवश्यकताओं के सिद्धांत के साथ संधि के उद्देश्यों को सुव्यवस्थित करने में सफल रहा।  इस निधि की पिछले तीन दशकों से  विकसित देशों द्वारा इस निधि  कोष की लगातार पूर्ति की जा रही है ।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के पश्चात चार प्रमुख संशोधन किए गए। विकसित देशों में 2000 तक सीएफ़सी, हैलोन, कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफॉर्म के चरणबद्ध रूप से आउट  करने के अतिरिक्त 2010 तक विकासशील देशों में, लंदन संशोधन (1990) के अनुसार, कोपेनहेगन संशोधन (1992) ने एचसीएफसी को शामिल किया। चरणबद्ध कार्यक्रम में एचबीएफसी और सीएच3बीआर; बीजिंग संशोधन (1999), ब्रोमोक्लोरोमीथेन; और किगाली संशोधन (2016), हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी)। ये सभी संशोधन विकासशील देशों की वित्तीय और तकनीकी आवश्यकताओं और विभेदित चरण-बद  शेड्यूल की मान्यता में सीबीडीआर के सिद्धांत का भी पालन करते हैं। इन अनुसूचियों के अनुसार, अधिकांश देशों ने सीएफ़सी और एचसीएफसी सहित कई ओडीएस के उत्पादन और खपत को पूरी तरह से समाप्त करने में सफलता पाई   है।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल सेना के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?

सामान्यतः सशस्त्र बल ओडीएस के प्रमुख उपयोगकर्ताओं में से एक हैं। आग बुझाने के लिए क्रेश फायर टेंडरो और वायु सेना के प्रत्येक विमान में अग्नि शमन के रूप में हेलोन्स का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार, नौसेना और  थलसेना,  क्रमशः जहाजों/पनडुब्बियों और मोटर चालित बख्तरबंद वाहकों में  भी अग्निशमन कार्य करती है।  ओ डी एस का उपयोग विभिन्न रक्षा प्रतिष्ठानों और अनुप्रयोगों में भी किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर (और भारत में भी) ओडीएस के क्रमिक चरणबद तरीके के साथ, भंडार/बैंकिंग और पुनर्चक्रण हॉलों के लिए अत्यधिक बल दिया गया है,तथा  सेना में ओजोन-अनुकूल विकल्प प्रदान किये गए है। कई सेनाएं नए उपकरणों, जैसे बख्तरबंद लड़ाकू वाहनों में सीएफ़सी और हैलोन को एचएफसी  में परिवर्तित करने में सक्षम हैं। तथापि अधिकांश सैन्य/रक्षा अनुप्रयोगों और संचालन की चुनौतियां हैं, विशेष रूप से विकासशील देश ओडीएस पर अत्यधिक निर्भर हैं, क्योंकि मौजूदा उपकरणों और/या रेफ्रिजरेंट को फिर से लगाने या बदलने के साथ-साथ दक्षता, रखरखाव, इष्टतम प्रदर्शन और सुरक्षा सुनिश्चित करनी होती है। अधिक जोखिम वाले स्थानों पर यह  कार्य अत्यधिक कठिन साबित हुआ है।

यूएनईपी  द्वारा सेना के लिए कुछ उपयोगी चरणबद्ध रणनीतियों की सिफारिश की गयी है। इनमें प्रमुख हैं – विकल्प उपलब्ध होने पर नए ओडीएस की खरीद को कम करना; विकल्पों को सुरक्षित करने के लिए उद्योगों के साथ समन्वय; सैन्य कर्मियों के लिए प्रशिक्षण उपक्रम; देशों के बीच सर्वोत्तम  ज्ञान का आदान-प्रदान; चरणबद्ध रणनीतियों और समय सारिणी की कठोर निगरानी, ​​समीक्षा एवं मूल्यांकन; तथा सैन्य बजट योजना में ओडीएस  के इस्तेमाल को समाप्त करना आदि शामिल हैं। एचसीएफसी नियंत्रण उपायों के लक्ष्यों को पूरा करना और एचएफसी (किगाली संशोधन में) को चरणबद्ध प्रणाली से समाप्त करने के आगामी लक्ष्य सशस्त्र बलों  सहित पूरे भारतके लिए अत्यावश्यक हैं।  इस चुनौती का सामना करने  के लिए,संबंधित प्रयासों को देश की चरणबद्ध योजनाओं के साथ जोड़ना होगा। ओडीएस चरण- बद्ध योजना में सैन्य संगठनों की भागीदारी  अनिवार्य है। जब सीएफ़सी प्रक्रिया के प्रबंधन के दौरान सीखे गए सबक के प्रकाश मे देखते हैं तो,  अधिकांश देशों (भारत सहित)  के सशस्त्र बलों ने विलंब से प्रवेश किया ( राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित चिंताओं के कारण)। अतः उन्हें अतिरिक्त समर्थन की आवश्यकता है। इन प्रक्रियाओं में सेनाओं को शामिल करना न केवल उनके बड़े ‘बूटप्रिंट’ (क्योंकि वे ओडीएस के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक हैं) के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं,  अपितु राष्ट्रीय स्तर पर संधि को लागू करने के लिए एक संपूर्ण सरकारी दृष्टिकोण का नेतृत्व करने की उनकी क्षमता  के है।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का भविष्य और जलवायु नीति का सबक

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा – जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने,  ऊर्जा दक्षता में वृद्धि, खाद्य और स्वास्थ्य सुरक्षा, आदि जैसे अनेक सह- लाभ आरंभ किये है। उदाहरण के लिए, एचएफसी को चरणबद्ध करने का निर्णय उनकी उच्च ग्लोबल वार्मिंग क्षमता (जीडब्ल्यूपी) को देखते हुए लिया गया है।  एचएफसी को एचसीएफसी के विकल्प के रूप में अपनाया गया,  क्योंकि बाद वाले में ओजोन क्षय क्षमता अधिक (ओडीपी) होती है। भविष्य में, उन पदार्थों के उपयोग पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा जिनका ओजोन और जलवायु दोनों पर न्यूनतम प्रभाव पड़ता है। वास्तव में, अधिकांश ओडीएस  में उच्च  जीडब्ल्यूपी भी विद्यमान है। अतः ओजोन और जलवायु की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों द्वारा परस्पर संबंध मजबूत हो  रहे है। इसके अतिरिक्त, अनेक क्षेत्रों में पहले से ही प्रोपेन, आइसोब्यूटीन और अमोनिया जैसे विकल्पों का उपयोग हो रहा हैं। वास्तव में, विभिन्न मुद्दों पर इन सहक्रियाओं ने इस वर्ष के थीम की घोषणा की है – “मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल – हमें, हमारे भोजन और टीकों को ठंडा रखना।” अब, पर्यावरण के अनुकूल कोल्ड स्टोरेज का महत्व  पहले से कही अधिक अनिवार्य हो गया है। दुनिया भर में महामारी और टीकाकरण अभियान के बीच, पर्यावरण के अनुकूल वैक्सीन कोल्ड चेन स्थायी स्वास्थ्य नीति की कुंजी है।

किगाली संशोधन के अंतर्गत, भारत द्वारा एच एफ सी कार्य वर्ष “2032 तक 4 चरणों में पूर्ण करना है। अर्थात, 2032 में 10% की संचयी कमी, 2037 में 20%, 2042 में 30% और 2047 में 85% एचएफसी  से अपने कार्य को पूरा करने की संभावना है।” इसने 2017-23 की अवधि के दौरान एचसीएफसी प्रबंधन योजना पहले ही प्रारंभ कर दी है। अत्याधुनिक तकनीकों के विकास और अधिग्रहण के लिए सरकार और उद्योगों को अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) में निवेश करने की आवश्यकता है। भारत इस क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास  के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) तथा यूरोपीय संघ ( ईयू )आदि के साथ हाथ मिला सकता है और लागत प्रभावी उपायों को अपना सकता हैं और एकाधिक रूपांतरण के लिए  विश्व में छलांग लगा (नवाचार नीतियों के माध्यम से)  सकता हैं।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की सफलता के  उद्धृत कारणों में से इसका मौलिक एक आधार- विज्ञान-नीति इंटरफेस है, जिसे वैज्ञानिक और नीति समुदायों  तथा अन्य महत्वपूर्ण हितधारकों, जैसे उद्योग, पर्यावरण संगठन और तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा डिज़ाइन एवं निष्पादित किया जाता है। इसने न केवल ‘एहतियाती सिद्धांत’ (यहां तक ​​कि  विज्ञान  के भिन्नसिद्धांत भी) का पालन किया,  अपितु  इस उद्योग के लिए दीर्घकालिक नवाचार का मार्ग  भी प्रशस्त किया। संभवत: यह  सबसे महत्वपूर्ण संधि का अनुपालन तंत्र है जो अपने स्वरूप में “गैर-दंडात्मक” है, तथा बहुपक्षीय कोष सहित विभिन्न संस्थागत तंत्रों द्वारा पर्याप्त रूप से समर्थित है। इसके अतिरिक्त, सूचना साँझा करने और क्षमता निर्माण के लिए संस्था-निर्माण ( राष्ट्रीय ओजोन इकाइयों और ओजोन अधिकारियों के क्षेत्रीय नेटवर्क के माध्यम से) और व्यापार प्रावधान, (गैर-पार्टियों के साथ ओडीएस व्यापार को रोक कर   इसे शामिल करना अनिवार्य करते हैं) द्वारा भी इसका सुचारु संचालन सुनिश्चित किया गया है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों (विशेष रूप से यूएनईपी) वैज्ञानिकों, पर्यावरण समूहों और अन्य द्वारा लगातार चलाए जा रहे  शैक्षिक  और जागरूकता अभियानों  से कई देशों के उपभोक्ताओं के विकल्पों में वास्तविक परिवर्तन हुए हैं।

यद्यपि  जलवायु परिवर्तन नीति पर इन सब को पूरी तरह से लागू  किया  जाना संभव नहीं है, क्योंकि ओजोन रिक्तीकरण के लिए एक व्यवस्थित ओवरहाल की आवश्यकता  ही नहीं थी, अपितु विज्ञान-नीति इंटरफेस को मजबूत करने की गुंजाइश है, जो अत्यधिक वैज्ञानिक सहमति के बावजूद बाधित हो रही है। प्रभावी संस्थानिकरण, जलवायु, वित्त, व्यापक औद्योगिक जुड़ाव, और निरंतर वकालत और जनता निस्संदेह  इस पर प्रभाव डाल सकती है तथा प्रणाली में दीर्घकालिक परिवर्तन ला सकती है।

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लेखक
डा. धनश्री जयराम कर्नाटक के मणिपाल उच्च शिक्षा एकेडमी के भू-राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं और जलवायु अध्ययन केंद्र में सह-समन्वयक हैं। वह अर्थ सिस्टम गवर्नेंस में रिसर्च फेलो और जलवायु सुरक्षा विशेषज्ञ नेटवर्क की सदस्य भी हैं। उन्होंने एमएएचई से भू-राजनीति और अंतरराष्टीय संबंधों में पीएचडी की है। उन्होंने 2014-15 के दौरान लीडेन यूनिवर्सिटी, नीदरलैंड्स में विजिटिंग फेलोशिप (इरास्मस मुंडस-शॉर्ट-टर्म पीएचडी) और 2018-19 के दौरान स्विस गवर्नमेंट एक्सीलेंस स्कॉलरशिप के तहत स्विट्जरलैंड के लॉजेन विश्वविद्यालय में पोस्टडॉक्टरल फेलोशिप हासिल की। वह "ब्रेकिंग आउट ऑफ द ग्रीन हाउस : इंडियन लीडरशिप इन टाइम्स ऑफ एनवायरनमेंटल चेंज" (2012) और "क्लाइमेट डिप्लोमेसी एंड इमर्जिंग इकोनॉमीज : इंडिया इज ए केस स्टडी" (2021) की लेखिका हैं।

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