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हिन्द-प्रशांत : बदलती रणनीति और भारत की अहमियत

डॉ. रहीस सिंह
शुक्र, 22 अक्टूबर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

दुनिया एक नयी विश्वव्यवस्था की तरफ खिसकती हुयी दिख रही है लेकिन अभी यह तय नहीं है कि जब विश्वव्यवस्था संक्रमण से बाहर आएगी तब इसकी लीडरशिप किसके पास होगी। चूंकि अभी तक बहुत से पक्ष धुंधले हैं, इसलिए रणनीति और अदृश्य संघर्षों के क्षेत्र में बहुत कुछ ऐसा होने की संभावना है जिसका अनुमान लगाना शायद अभी मुश्किल हो। ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि इसमें हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की भूमिका क्या होगी? यदि हिन्द-प्रशांत इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है तो फिर इस क्षेत्र में बनते-बिगड़ते रणनीति समीकरणों को किस रूप में देखा जाए? एक प्रश्न यह भी कि इसमें भारत की भूमिका क्या होगी? क्या भारत निर्णायक भूमिका (डिसीजन मेंकिंग) होगा या फिर औपचारिक भूमिका में?

हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका द्वारा ऑकस नाम के सैन्य गठबंधन की घोषणा की गयी। इसमें भारत को शामिल नहीं किया गया जबकि भारत क्वाड (एक औपचारिक अरैंजमेंट, जिसे चलन में रणनीतिक चतुर्भुज कहा जा रहा है) का संस्थापक सदस्य है। परिवर्तन के रणनीतिक निहितार्थ क्या हैं? आगे बढ़ने से पहले 21वीं सदी के दूसरे दशक में अमेरिकी रणनीति और कुछ संगत विरोधाभासों को समझने की आवश्यकता होगी। यह ध्यान देने की जरूरत है कि वर्ष 2008 में अमेरिका में आए वित्तीय संकट और ड्रैगन की बदली हुयी चाल के बाद से ही यह क्षेत्र इतना महत्वपूर्ण क्यों बन गया? यह सच है कि जापान काफी समय से पैसिफिक अथवा ट्रांस-पैसिफिक क्षेत्र को लेकर संवेदनशील था लेकिन अमेरिका ने पिछले दशक में इसे ‘पीवोट टू एशिया’ के तहत एक ‘कोर-जोन’ के रूप में अनुरेखित किया और रणनीति तय की। नवम्बर 2017 में निर्मित क्वाड अरेंजमेंट इसी रणनीति कदम से सम्बंधित एक औपचारिक मंच है जो मैरीटाइम सुरक्षा और कनेक्टिविटी के जरिए ‘मुक्त एवं स्वतंत्र इण्डो-प्रशांत’ (फ्री एण्ड ओपन इंडो पेसिफिक) को स्थापित करने की बात करता है।

स्थापना के समय ही क्वाड के बीच आंतरिक विभाजन वाली ऐसी लकीरें दिख गयी थीं जो इसकी क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगा रही थीं। जैसे-औपचारिक घोषणा के पश्चात संयुक्त वक्तव्य का जारी न किया जाना बल्कि प्रत्येक भागीदार देश द्वारा अलग-अलग वक्तव्य जारी करना। उनके वक्तव्यों में समानता न रहना, यह बता रहा है कि इस चतुर्भुज में शामिल चारों देशों के उद्देश्य और उनके दृष्टिकोण में कहीं पर एकरूपता का अभाव तो था जो किसी न किसी न प्रकार की असहमति का परिचायक है। ऐसे में जरूरी था कि एक ऐसे सैन्य गठबंधन का निर्माण हो जो इस औपचारिक मंच को कवर (सुरक्षा दीवार) प्रदान कर सके। ऑकस इसी आवश्यकता की पूर्ति करता हुआ दिखता है। भारत घोषित तौर पर किसी मिलिट्री गठबंधन में शामिल होने का पक्षधर नहीं है, इसलिए ऑकस उसकी विदेश नीति के आदर्श से मेल नहीं खाता।

हिन्द-प्रशांत में जहां तक भारत की अहमियत का प्रश्न है तो यह बात अमेरिका को भली-भांति मालूम है। ध्यान रहे कि वर्ष 2012 में अमेरिका के एक संसदीय सलाहकार आयोग ने ओबामा प्रशासन को चीन के प्रति और आक्रामक रुख अपनाने की सलाह दी थी। इसी के बाद हिलेरी क्लिंटन के नेतृत्व वाली टीम, जिसमें सहायक विदेश मंत्री कर्ट कैंपबेल सहित कई रणनीतिकार शामिल थे, एशिया-प्रशांत क्षेत्र का भ्रमण कर जापान, दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया के साथ अमेरिकी गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी बिन्दुओं को तलाशे गये और फिर प्रशासन को रिपोर्ट सौंपी गयी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अमेरिका, भारत और जापान के साथ त्रिपक्षीय गठबंधन बनाकर इण्डोनेशिया के साथ गहरे सम्बंध स्थापित करे। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 21वीं सदी में सामरिक और आर्थिक आकर्षण का केंद्र एशिया-प्रशांत क्षेत्र होगा और इसमें अमेरिका के रणनीतिक साझेदारों के साथ-साथ भारत सहित इंडोनेशिया, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, मलेशिया और वियतनाम को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इसका सीधा सा अर्थ है कि भारत को अमेरिकी जरूरतों के कारण हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में बनने की वाली रणनीति का हिस्सा बनाया गया था और इसके पीछे असल मकसद चीन के प्रभाव को रोकना था। यह भारत की एक्ट ईस्ट नीति की भी जरूरत थी। हालांकि इस दृष्टि से भारत को ऑकस का भी हिस्सा बनने की जरूरत थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब यह ट्रंप रेजीम में भारत-अमेरिका के बीच रिश्तों में स्थापित व्यक्तिगत संबंधों की वरीयता का साइड इफेक्ट है या भारत की विदेश नीति का औपचारिक पक्ष, यह स्पष्ट होना बाकी है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि भारत एक तरफ चीन के साथ ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन का स्थायी व सक्रिय सदस्य है। यही नहीं शंघाई सहयोग संगठन को नाटो एक सैन्य संगठन और अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है। शायद यही वजह थी कि ‘मुक्त और खुले हिन्द-प्रशांत’ (फ्री एण्ड ओपन इंडो-पेसिफिक) की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करने के बाद भी भारत की तरफ से जारी किए गये बयान में ‘मैरीटाइम सिक्योरिटी’ (समुद्री सुरक्षा) को शामिल नहीं किया गया था।

अब इस नए अमेरिकी कदम पर बात करें जो ऑकस के रूप में सामने आया। इसके अस्तित्व में आते ही दो सवाल सामने आए। पहला यह कि ‘क्वाड’ और ‘फाइव आइज’ (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कनाडा और न्यूजीलैंड) के होते हुए अब इसकी जरूरत क्या थी? दूसरी जिस फ्रांस को क्वाड में शामिल ‘क्वाड$1’ की बात चल रही थी उससे टकराव की स्थिति पैदा कर ब्रिटेन को हिन्द-प्रशांत में नए गेम प्लेयर के रूप में क्यों लाया गया? ध्यान रहे कि फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के मध्य परमाणु पनडुबी निर्मित करने सम्बंधी एक समझौता वर्ष 2016 में सम्पन्न हुआ था, जो अब रद्द हो गया और फ्रांस की जगह ब्रिटेन ने ले ली। क्या फैसला भी ट्रंपियन रेजीम की पुनरावृत्ति नहीं लगता? अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का कहना है कि आज हम एक और ऐतिहासिक कदम उठा रहे हैं। तीनों देशों के सहयोग को औपचारिक बनाते हुए और गहरा कर रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम सभी हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में लंबे समय तक शांति और स्थिरता बने रहने की अहमियत समझते हैं। ऐसी ही टिप्पणी ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की तरह से भी दिखी। उनका कहना है कि तीन साझेदार अपनी मित्रता का एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। इसमें कोई संशय नहीं है, अध्याय तो नया शुरू हो रहा है लेकिन इस अध्याय से जुड़ी कहानी किस प्रकार के निष्कर्ष की तरफ जाएगी, यह स्पष्ट नहीं है। फ्रांस के साथ अमैत्रीपूर्ण तरीका अपनाकर यह गठबंधन बेहतर निष्कर्षों तक पहुंच पाएगा, ऐसा नहीं लगता।

एक सवाल यह भी है कि क्या ऑकस हिन्द-प्रशांत क्षेत्र या विशेषकर दक्षिण चीन सागर में किसी ऐसी जियो स्ट्रेटजी या जियो पॉलिटिक्स अपनाने जा रहा है जो वास्तव में चीन की आक्रामकता को रोकने में कामयाब हो जाएगा? हालांकि यह गठबंधन घोषित रूप से तो आधुनिक रक्षा प्रणालियों जैसे साइबर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और समुद्र के भीतर की क्षमताओं के विकास के लिए काम करेगा। लेकिन यह इतना सीधा साधा रणनीतिशास्त्र नहीं हो सकता। हिन्द-प्रशांत की प्रत्येक अमेरिकी रणनीति चीन को ध्यान में रखकर ही बनायी जाती है। लेकिन क्या यह फ्रांस और भारत के बिना सफल हो पाएगी? संभवतः नहीं। कुछ सवाल और भी हैं। पहला यह कि अफगानिस्तान में अंतिम रूप से अमेरिकी पराजय के बाद अमेरिका दक्षिण एशिया और मध्य-एशिया में संभावित आतंकी गतिविधियों की चिंता किए बगैर हिन्द-प्रशांत में एक नया गठबंधन बनाने क्यों पहुंच गया? क्या यह कदम यह नहीं दर्शा रहा कि अमेरिका ट्रंप रेजीम से भले ही बाहर आ गया हो लेकिन उसकी छाया से मुक्त नहीं हुआ। दूसरा-क्या अमेरिकी नीति अभी अमेरिका फर्स्ट की ही है, जो सिर्फ लाभ हानि पर चलती है ना कि संवेदनशील साझेदारी पर? इसमें कोई संशय नहीं कि अमेरिका संवेदनशील रिश्तों पर नहीं लाभ-हानि की गणित पर चलता है। यही गणित उसके लिए हानिकारक सिद्ध होगी। इसकी शुरूआत तो पहले ही हो चुकी थी लेकिन निर्णायक रूप में बीती 15 अगस्त को दिखी। फिलहाल अमेरिका के लिए आज की जरूरत पहले यूरोपीय मित्रों को एक साथ साधने, यूरोप को युनाइट रखने और फिर एशियाई मित्रों, विशेषकर भारत, जापान …को लेकर रणनीति बनानी थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। बाइडेन शायद यह भूल गये कि ब्रिटेन अब यूरोपियन लीडर नहीं है, बल्कि फ्रांस और जर्मनी हैं। ऐसे में फ्रांस के साथ-साथ विश्वासघात नुकसानदेह हो सकता है। वर्तमान समय आतंकवाद और उन्हें पोषित करने वाली ताकतों के साथ लड़ाई सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इसे बेहतर तरीके से फ्रांस लड़ सकता है यूरोप में और यूरोप से बाहर भी, ब्रिटेन नहीं। रही बात ऑस्ट्रेलिया की तो वह पिछले लंबे समय से चीन के खिलाफ मुक्त संघर्ष की ताकत भी नहीं जुटा पा रहा है और शायद क्वाड के शिथिल पड़ने की एक वजह यह भी है। फिर वह इस गठबंधन में चीन के खिलाफ ताल ठोककर खड़ा हो जाएगा, ऐसी उम्मीद करना तथ्यनिरपेक्ष होगा।

जो भी हो, ऑकस या क्वॉड, ये हिन्द-प्रशांत क्षेत्र रणनीति के वास्तविक चेहरे नहीं हैं। ये ऐसे दृश्य पक्ष हैं जिन्हें पेंटागन या अमेरिकी मिलिट्री इण्डस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स दिखाना चाहता है। इसका मतलब यह है कि पर्दे के पीछ बहुत कुछ चल रहा है, जो दिखाया नहीं जा रहा। इसलिए ऑकस और क्वाड पर कोई भी बहस अभी निष्कर्षों तक पहुंचने वाली नहीं लगती। हां इतना जरूरत है कि अमेरिका की काबुल से शर्मनाक विदाई या 20 पहले शुरू किए गये वार इन्ड्यूरिंग फ्रीडम में मिली असफलता के बाद अकस्मात ऑकस अस्तित्व में आ गया, इसलिए इसे हम ‘डिप्लोमैटिक कैपिंग’ के रूप में देखना चाहें तो देख सकते हैं। इस सबके बीच एक बात मानकर चलनी चाहिए कि भारत के बिना हिन्द-प्रशांत की कोई भी अमेरिकी रणनीति सफल नहीं हो पाएगी। लेकिन इसके लिए भारत को भी सक्रियता बढ़ानी होगी। भारत को मिनीलैटरल्स के जरिए आगे बढ़ने की रणनीति पर तेजी से काम करना होगा। हालांकि ‘जय’ अर्थात जापान-अमेरिका-भारत कोआपरेशन ट्रैंगल के अतिरिक्त भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के बीच भी रणनीति सहयोग की दिशा में कुछ नए आयाम जुड़ते दिख रहे हैं। इसी प्रकार से फ्रांस अपनी हिन्द-प्रशांत नीति के तहत भारत, जापान के साथ त्रिकोणीय सम्बंधों की ओर बढ़ रहा है। अगर ये मिनीलैटरल्स वास्तविक आकार ग्रहण करने में सफल हो गये तो हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में बनने वाली कोई भी रणनीति इनकी उपेक्षा नहीं कर पाएगी। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की अपेक्षा कर कोई भी ताकत हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में ठोस एवं सफल रणनीति नहीं बना पाएगी।

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लेखक

डॉ. रहीस सिंह, एक्सपर्ट विदेश नीति एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध के लेखक हैं। लगभग 25 वर्षों से नियमित कॉलम लेखन एवं पत्रकारिता के साथ-साथ दिल्ली में सिविल सेवाओं से जुड़े प्रतिभागियों के बीच अध्यापन। इसके समानांतर इतिहास, वैश्विक सम्बंध, विदेश नीति आदि विषयों पर करीब दो दर्जन पुस्तकों का लेखन (जिन्हें पियर्सन, मैक ग्रॉ हिल, लेक्सिस नेक्सिस, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली आदि द्वारा प्रकाशित किया गया है।


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