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Geopolitics & National Security
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अमेरिका की अफगानिस्तान पराजय–एकध्रुवीय दुनिया का अंत

सोनल शुक्ला
सोम, 20 सितम्बर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

काबुल से जान बचाने के लिए भागते हुए लोग, हताश अफ़गान, आईएस-के आत्मघाती हमले और वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, सैनिकों, पुलिस अधिकारियों, पत्रकारों की निर्मम हत्याओं की हृदयविदारक और भयावह तस्वीरों से पूरी दुनिया स्तब्ध और आक्रोशित है। अमेरिका की अफगानिस्तान से दुखद वापसी को टोनी ब्लेयर ने “अफगानिस्तान और उसके लोगों का परित्याग दुखद, खतरनाक, अनावश्यक,  किसी के  भी हित  में नहीं” के रूप में वर्णित किया है।

एक सूखाग्रस्त देश, जहां लगभग 50% लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, 5.5 मिलियन  विस्थापित हैं, एक तिहाई  लोग खाद्य असुरक्षा का  सामना आपातकालीन स्तर पर  कर रहे हैं, ऐसे में तालिबान के अधिग्रहण के बाद से व्यवसायिक उड़ानें निलंबित कर दी गई है। चार करोड़ अफ़गानों को मौत, क्रूरता, आर्थिक पतन, आतंकवाद, मध्यकालीन कानूनों, कुप्रथाओं, कानून और व्यवस्था के पतन और राजनीतिक अनिश्चितता  की स्थिति में छोड़ दिया गया है। बिडेन के इस मानवीय संकट को पश्चिमी सांसदों, विद्वानों और मीडिया द्वारा अमेरिका और नाटो की विदेश नीति की आपदा के रूप में स्वीकार किया गया है; और बिडेन के लिए निजी तौर पर,  उनकी राष्ट्रपति पद की परिभाषित विरासत  के रूप में कहा गया ।

यह अवास्तविक लग  सकता है  कि इतिहास में पहली बार तालिबान ने अफगानिस्तान पर पूरे  नियंत्रण के बाद  घोषणा की कि उन्होंने 20 साल बाद अमेरिका को हराया। पुतिन ने दो दशकों की अमेरिकी भागीदारी को अफगान और स्वयम् उनके लिए एक त्रासदी के रूप में मूल्यांकित किया है। अमेरिका का भी कम अपमान नहीं  हुआ है। उसकी विश्वसनीयता खो गई है। पूरे विश्व में, विशेष रूप से पश्चिम में एक उग्र बहस जारी है कि, क्या वापसी सबसे अच्छा विकल्प था तथा इसे किस प्रकार से समयबद्ध  चरणों मे निष्पादित किया जाना चाहिए था।

क्या अमेरिका उत्तरदायी है?

बाइडेन बार-बार स्पष्टीकरण दे रहे हैं कि उनकी जिम्मेदारी केवल अमेरिकियों के हितों की रक्षा करना है। शुद्ध स्वार्थ अमेरिका के लिए असामान्य नहीं है,  यद्यपि यह मानव अधिकारों के नाम पर बहुत अधिक नाजुक ढंग से किया जाता रहा है। इतना खुलकर, अहंकार के साथ और स्पष्ट रूप से पहले कभी नही बताया गया। अफगानिस्तान में पूर्व भारतीय राजदूत, गौतम मुखोपाध्याय के अनुसार वापसी के साथ अमेरिका ने-मध्य एशियाई गणराज्यओ, जैसे भारत, अफगान आदि  सभी को नुकसान पहुंचाया है।

अगर ट्रम्प ने अमेरिका को विश्व की हंसी का पात्र बनाया, तो बाइडेन ने एक कदम  और आगे बढ़कर अविश्वसनीय रूप से कलंकित, विवेकहीन, अस्थिर साथी के रूप में लज्जित,  निजी स्वार्थ से प्रेरित और एकतरफा काम करने के लिए अमेरिका को बदनाम कर दिया। ट्रम्प की सभी अपमानजनक आलोचनाओं के लिए, यह दिलचस्प है कि बिडेन ने केवल अपने  व्यापार का पालन किया, जबकि कई अन्य महत्वपूर्ण निर्णयों को  बदल दिया, और अब अपनी पराजय के लिए ट्रम्प के फैसले, अफगान सरकार और उसकी सेना को दोषी ठहरा रहा है ।

अफ़ग़ान सरकार को उसकी स्थिति पर छोड़ कर, अमरीका ने अपनी सुरक्षा के लिए तालिबान के साथ समझौता किया और अफगान सैनिकों का मनोबल तोड़ा। सेना को बिना किसी हवाई कवर के छोड़ दिया गया, क्योंकि अफगान वायु सेना के रखरखाव के लिए आवश्यक अमेरिकी सैन्य अधिकारियों को वापस अमेरिका भेज दिया गया था। 2,300 अमेरिकी सैनिकों तथा 69,000 अफगान सैनिकों ने आतंकवाद के विरुद्ध इस अमेरिकी युद्ध में अपनी जान गंवाई। ब्रिटेन के सांसदो ने अफगान सेना के प्रति बाइडेन की टिप्पणियों को अपमानजनक और शर्मनाक बताया है। भले ही सेना ने प्रतिरोध किया परंतु, उसे-राजनीतिक, राजनयिक, मानवीय (निश्चित रूप से सैन्य नहीं) – किसी भी प्रकार का अमेरिकी समर्थन नही मिला, जैसा पंजशीर के बहादुर राष्ट्रीय प्रतिरोध मोर्चा के संबंध में देखा जा सकता है।

अफ़ग़ानिस्तान की सरकार अमेरिका द्वारा ही बनायी गयी थी, उसके नेताओं को अमेरिका दावरा चुना गया था। अफगानों को अलग-थलग करने वाले इतने बड़े पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार के   मुद्दे के लिए कार्यकर्ताओं द्वारा अत्यधिक दबाव डाले जाने के बावजूद, अमेरिका ने नियमित रूप से  इन सब की अनदेखी की। गौतम मुखोपाध्याय का दावा है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान के लोकतांत्रिक संस्थानों, व्यापार या उसकी 3 ट्रिलियन डॉलर की खनिज संपदा में निवेश नहीं किया।   5,000 तालिबानी कैदियों को रिहा करने के लिए अफगान सरकार को निर्देशित करना भी पूरी तरह से अनुचित और  शर्मनाक है।

बाइडेन  ने  अफगान अभियान पर अमेरिका की लागत एक ट्रिलियन डॉलर बतायी है। वास्तव में यह अफगान लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़  है। आतंक के खिलाफ अमेरिकी युद्ध में, तथा ड्रोन  हमलों में, न केवल सैनिक बल्कि निर्दोष नागरिक (लगभग 50,000) हताहत हुए। निर्दोष नागरिक जिन्हें अबू ग़रीब में प्रताड़ित किया गया; घरों और अन्य बुनियादी ढांचे का विनाश, टूटे हुए परिवार, खोए हुए अंग और बच्चे, आंतरिक और बाहरी विस्थापन (लगभग 2.5 मिलियन)  यह एक ऐसा नुकसान है, जिसकी भरपाई डॉलर में नहीं  की जा सकती है और न ही कभी इसे चुकाया जा सकता है।

अंत में, सोवियत समर्थित सरकार, जिसमें अफगान समाज की कम से कम लैंगिक आधार पर तो  प्रगति हुई थी,  उसे पटरी से उतारने के लिए कट्टरपंथी इस्लामी जिहादियों को उकसाकर तालिबान (पाकिस्तान के साथ) के निर्माण करने में उनकी भूमिका के लिए, अमेरिका  की अफगानों के प्रति जिम्मेदारी है।

ब्रिटेन विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष और अफगानिस्तान में लड़ने वाले एक पूर्व दिग्गज टॉम तुगेंदत ने प्रश्न किया कि क्या अमेरिका पश्चिम जर्मनी या दक्षिण कोरिया में “हमेशा के लिए मिशन”  जारी रखने के संदर्भ में बात  कर रहा था तो फिर अफगानिस्तान में क्यो नहीं।

अमेरिका और  विश्व पर इसके परिणाम

एंजेला मर्केल के संभावित उत्तराधिकारी अर्मिन लास्केट ने इस वापसी के संबंध में कहा कि “नाटो की स्थापना के बाद से सबसे यह एक बड़ी हार का सामना करना पड़ा है, और हम एक युगांतरकारी परिवर्तन पर खड़े हैं।” 2019 में श्री ट्रम्प के साथ या उसके बिना नाटो को “ब्रेन डेड” कहने वाले इमैनुएल मैक्रोन को कोई नहीं भूला है। ब्रिटेन की संसद में अमेरिका की एकतरफा वापसी और अफगानों को छोड़ देने के लिए की गयी आलोचना में इसे क्रूरता से कम नहीं माना गया। थेरेसा ने अनेक लोगों की भावनाओं को प्रतिध्वनित करते हुए सवाल किया कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना को बदलने के लिए नाटो गठबंधन के अन्य देश की खोज क्यों नहीं की गई। यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख, जोसेप बोरेल फोंटेल्स ने न्यूयॉर्क टाइम्स में “यूरोप,  अफगानिस्तान  इज यौर वेक अप कॉल” शीर्षक के  निबंध में,  इस वापसी को पश्चिम के लिए एक गंभीर झटके के रूप में वर्णित किया।

अमेरिका द्वारा चीन के विरुद्ध अपनी अगली कार्यवाही में नाटो सहयोगियों को एकजुट करना असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल अवश्य होगा, क्योंकि ब्रिटेन की संसद से लेकर जर्मनी और फ्रांस के सांसद अमेरिका से यूरोपीय देशों की रणनीतिक स्वायत्तता के महत्व का प्रश्न उठा रहे हैं। अगर नाटो के सहयोगी देश एकतरफा कार्य प्रणाली से असंतुष्ट हैं, तो  एशियाई देशों को वियतनाम से ताइवान और जापान से भारत तक के सभी एशियायी देशों को अभी चुप चाप स्थिति का  निरीक्षण करना, चीन के खिलाफ अमेरिका पर आंख मूंदकर भरोसा करने से बेहतर होगा। कमला हैरिस सिंगापुर में अमेरिका को उनके एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में शामिल करने के प्रति चिंतित हैं, जबकि इनके प्रधान मंत्री ने चेतावनी दी है कि अमेरिका आगे क्या करता है, इस पर बारीकी से नजर रखी जाएगी। चीन ने अमेरिका का मजाक उड़ाते हुए कहा, “अब उन पर कौन विश्वास करेगा?”, अपनी स्वार्थी वापसी की विदेश नीति के उदाहरण से यह किस नियम और व्यवस्था की बात करता है।

सभी स्तरों पर यह भविष्यवाणी की गई है कि यह अमेरिका की वैश्विक महत्वाकांक्षा और उसके आधिपत्य के अंत को चिह्नित कर रहा है, यह अंत की शुरुआत है, हालांकि एक विभक्ति बिंदु है। यह सवाल कि क्या अमेरिका के पास अभी भी अपनी घरेलू चुनौतियों से ऊपर उठकर दुनिया के अन्य देशों के मामलों में शामिल होने की क्षमता और सामार्थ्य है? ऐसा नहीं है, क्योंकि उनका घरेलू मामलों से परे देखने का कोई इरादा नही है और पिछले दो प्रेसीडेंसी की भी यही विशेषता रही है। अमेरिकी राष्ट्र-निर्माण का युग समाप्त हो गया।

चीन और रूस, इस क्षेत्र में अस्थिरता और कट्टरपंथी इस्लाम के खतरे से चिंतित होने के बावजूद, अमेरिका की इस वापसी को न केवल राहत के रूप में, बल्कि खुशी के साथ भी देख रहे हैं ,क्योंकि वे एशिया के अधिकांश हिस्सों में अमेरिकी प्रभाव का अंत देख रहे हैं और न केवल एशिया बल्कि विश्व में अपने बढ़ते हुए प्रभाव से खुश हैं।

अमेरिकी हस्तक्षेप के बिना दुनिया कम अराजक हो सकती है, परंतु क्रूर तानाशाही, कट्टरपंथी इस्लामी खतरा और आतंकवाद में वृद्धि हो रही है। कमजोर संयुक्त राष्ट्र में बहूध्रुवीकरण है और अन्य कोई भी ऐसा नेता नही है, जो इसे मजबूती से नियंत्रित कर पाये।

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लेखक
सोनल शुक्ला एक सार्वजनिक नीति विश्लेषक और एक वकील हैं। वह विदेशी मामलों, राजनीतिक अर्थव्यवस्था और पर्यावरण पर लिखती हैं।

अस्वीकरण

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POST COMMENTS (1)

Aman Raj

अक्टूबर 17, 2021
bhut acha lga padh ke....

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